जीवनी

श्रीराम शर्मा एक ऐसे व्यक्ति का नाम है, जिसके एक हाथ में कलम रहती थी और दूसरे हाथ में बंदूक। सरस्वती और कालिका कराली का अद्भुत समन्वय था उनके व्यक्तिव में। सत्य, शिव और शक्ति की साक्षात् प्रतिमा, जिसके दर्शन मात्र से तन-मन में सात्विक भावों के ऊर्जास्वित तंरगें जाग उठें। मझौला कद, गोल चेहरा, चौड़ा, ललाट, पारदर्शिनी चमकती आँखे! हाथ और चरखें का प्रत्यक्ष मेल दर्शाती दुग्ध-धवल खादी की धाोती, कुर्ता और टोपी! आचरण में गाँधी और सुभाष का ऐसा चमत्कारी दर्शन कि किसी को उन्हे पहचानने में कभी भूल न हो! जिन लोगों ने उन्हें देखा-समझा, जो लोग उनके संपर्क में आए, उनके साथ एक दिन भी रहे, उनकी वाणी का शब्द-रस पान किया, उनके व्याख्यान सुने, उनकी रचनाएँ पढ़ीं, खेतों में उन्हें काम करते देखा, उनके श्रम से रेतीली बंजर जमीन में सिर तक लहराती गेहूँ की बालियाँ देखीं, दोनों हाथों से दो बंदूकें सँभाले शेर का सामना करते निहारा-वे क्या उन्हे कभी भूल पाए और यदि वे अभी इस संसार की शोभा बढ़ा रहे हैं तो क्या उन्हें भूल पाएँगे? आसेतु-हिमालय अखंड भारत के लिए तन-मन और बुद्धि से अपना सर्वस्व होम देने वाले इस महापुरूष को सर्वप्रथम जब मैंने देखा, तब कारागृह की काल-कोठरी से सपरिवार वह आज़ादी का संदेश लिए बाहर आया ही था! ‘जय हिन्द’ का नारा उसके मुख-मंडल पर उल्लास की रेखाओं में अंकित हो रहा था और आगे पीछे चल रही थी अपार जन-भीड़ उसके शब्दों को दुहराती।

ऐसे विचित्र व्यक्तित्व के धनी पंडित श्रीराम शर्मा का जन्म मैनपुरी जनपद के ‘किरथरा’ नामक ग्राम में, जो मक्खनपुर और फ़ीरोजाबाद के पास पड़ता है, बुधवार 23 मार्च को सन 1896ई. में (तदनुसार फाल्गुन शुल्क पक्ष 13 बुधवार को संवत् 1952 वि. में) हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित रेवतीराम शर्मा था। पंडित श्रीराम शर्मा तीन भाई थे – बड़े पंडित बाला प्रसाद शर्मा और छोटे पंडित जगन्नाथ शर्मा। माता का वात्सल्य ही पंडित श्रीराम शर्मा के पालन-पोषण में अधिक सहायक हुआ, क्योंकि उनके पिता पंडित रेवतीराम शमा का स्वर्गवास 35-36 वर्ष की अल्पायु में सन 1906 ई. में ही हो गया था। उस समय श्रीराम शर्मा केवल नौ वर्ष के थे। (संस्मरण-सीकर, पृष्ठ 9)। अनुज पडित जगन्नाथ शर्मा भी (अविवाहित) कम आयु में ही स्वर्ग-सिधार गए थे। अतः अग्रज बाला प्रसाद शर्मा ने परिवार को आर्थिक सहारा देने के लिए कुछ समय तक गुरूकुल काँगड़ी में अध्यापन का कार्य किया। किरथरा में उनके परिवार की 145 बीघा खेती बची थीं, जिसे सँभालने वे गाँव लौट आए थे और आजीवन अपने परिवार तथा पंडित श्रीराम शर्मा के लिए एक बड़ा सहारा रहे।

अग्रज बाला प्रसाद शर्मा ने घर पर ही श्रीराम शर्मा की प्रारंभिक शिक्षा का स्वयं शुभारंभ किया था। तत्पश्चात् उन्हें मक्खनपुर के प्राइमरी स्कूल में प्रवेश मिला। हाईस्कूल की शिक्षा के लिए उन्हें खुर्जा भेजा गया, जहाँ वे सभी कक्षाओं में उत्तम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। सन 1917 ई. में इंटरमीडिएट की परीक्षा उन्होंने आगरा कॉलेज से उत्तीर्ण की और फिर वहीं बी.ए. की शिक्षा के लिए भर्ती हुए। बी.ए. करने के बाद उन्होंने तत्कालीन शिक्षा वयवस्था के अनुसार एम.ए. (अर्थशास्त्र) और एल.एल.बी. में एक साथ प्रवेश लिया। किन्तु उच्च शिक्षा पाकर वकील बनना उनकी नियति नहीं थी। उनके हृदय में देश-प्रेम के जो सात्विक भाव उमंगित हो रहे थे, उनके प्रवाह में पंडित जी की भावी जीवन-दिशा ही बदल गई, जिसका उल्लेख हम आगे करेंगे।

पंडित श्रीराम शमा कश्यप गोत्रीय सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे, जो पूर्णतः शाकाहारी और आस्तिक रहा है। बचपन में ही पिता की छाया छिन जाने के कारण उन्हें माँ के संघर्ष-मय जीवन में जो कुछ देखने को मिला, उससे वे पूर्णतः आस्थावन् हो गए थे। बचपन से ही उनके बड़े भाई और माता से ऐसे संस्कार मिलते रहे थे, जो उनके भावी जीवन-निर्माण में सर्वाधिक सहायक सिद्ध हुए। इन संस्कारों का ही परिणाम था कि वे धीरे-धीरे सहनशील, साहसी, पराक्रमी और आत्म-निर्भर बनते जा रहे थे। जिन दिनों वे आगरा कॉलेज में पढ़ रहे थे, उन दिनों मक्खनपुर से आगरा का रेल-किराया मात्र ‘साढ़े पाँच आना’ था, किन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर वे प्रति शनिवार पैदल ही गाँव की यात्रा करते थे और वापिस भी पैदल चलकर ही आगरा पहुँचते थे।

पंडित जी की मिडिल स्कूल की शिक्षा उर्दू भाषा के साथ हुई थी। इंटरमीडिएट परीक्षा में भी उन्होंने उर्दू भाषा पढ़ी थी। अतः हिन्दी के साथ-साथ उन्हें उर्दू भाषा का अच्छा ज्ञान था। अध्ययन-काल में अंग्रेजी-साहित्य प्रमुख विषय न रहने पर भी वे स्वाध्याय के द्वारा अंग्रेजी भाषा और साहित्य-दोनों के प्रकांड विद्वान बन गए थे। विश्व की कई भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से ही प्राप्त किया था।
पारिवारिक संस्कारों के अनुरूप ही पंडित जी को जीवन-संगिनी मिलीं-लक्ष्मीदेवी। वे सचमुच लक्ष्मीदेवी ही थीं-सर्वपूज्या। अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की सनातन आस्था-युक्त महिला थीं। वे उनके साथ अपने विवाह में पंडित श्रीराम शर्मा ने पूर्णत: आदर्शवाद का पालन किया था। श्वसुर पंडित हेतराम शर्मा तो आर्यसमाजी थे ही, किन्तु श्रीराम शर्मा ने सनातनी होते हुए भी बारात में पाँच व्यक्ति ले जाकर और दहेज न लेकर केवल सवा रूपया-नारियल में ब्याह किया था।

श्रीमती लक्ष्मीदेवी से पंडित श्रीराम शर्मा के आठ संतानें हुई। ब्रजेश, राकेश, दिनेश, तीन पुत्रों की असमय मृत्यु हो गई। पाँच अन्य संतानें हैं कमला शर्मा, शारदा और डॉ. सरोजिनी (पुत्रियाँ) तथा डॉ. रमेश कुमार शर्मा एवं उदयन शर्मा (पुत्र)। इनमें से डॉ. सरोजिनी शर्मा एवं उदयन शर्मा का कुछ समय पूर्व निधन हो चुका है। सुश्री कमला शर्मा आगरा में एक कन्या विद्यालय की प्रधानाचार्य थीं, जो अब स्वर्ग सिधार चुकी हैं। डॉ. रमेश कुमार शर्मा हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक-आलोचक हैं, जो कश्मीर विश्वविद्यालय श्रीनगर से हिन्दी विभाग के आचार्य अध्ययन एवं संकाय के अधिष्ठाता आदि पदों से सेवा-निवृत्त होकर अब आगरा में रहते हैं। वहाँ वे नागरी प्रचारिणी सभा (आगरा) तथा भारतीय हिन्दी परिषद् (इलाहाबाद) के अध्यक्ष रहकर हिन्दी भाषा की उल्लेखनीय सेवा करते रहे हैं। आलोचना के क्षेत्र में उनका प्रदेय अत्यंत प्रशंसनीय है। डॉ. सरोजिनी केन्दीय हिन्दी संस्थान आगरा में आचार्य के पद से सेवा-निवृत्त हुई थीं। उदयन शर्मा हिन्दी की युवा पीढ़ी के सुप्रसिद्ध पत्रकार थे। धर्मयुग, रविवार, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला आदि पत्रों के संपादन में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। हिन्दी पत्रकारिता को उनसे बहुत आशाएँ थीं, किन्तु दिल्ली में असमय उनका निधन हो गया। डॉ. रमेश कुमार शर्मा की पत्नी डॉ. विमला मुंशी भी हिन्दी की आचार्य एवं लेखिका हैं। उनकी एक मात्र संतान डॉ0 मंजरी शर्मा का विवाह आगरा के ही एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ है और वह भी नाटक विधा की आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं।

आगरा कॉलेज में एम.ए. और एल.एल.बी. के छात्र के रूप में अध्ययन करते हुए श्रीराम शर्मा ब्रिटिश-शासन विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने लगे थे। फलतः उनके गाँव किरथरा पर पुलिस की कोप-दृष्टि धीरे-धीरे बढ़ती चली गई। सन् 1938 में वे आगरा के बल्कावस्ती मुहल्ले के एक मकान में सपिरवार आ गए, जिसे भी धीरे-धीरे पुलिस का कोप-भाजन बनना पड़ा। इसी मकान में रहकर उन्होंने स्वाधीनता-संग्राम के विविध कार्यक्रम चलाए तथा विशाल भारत (मासिक, कलकत्ता) का संपादन किया। यहीं से वे अनेक बार जेल गए। सन् 42 के आंदोलन में उनकी नेतृत्व पूर्ण जो सक्रिय भूमिका थी, उसके कारण बड़े भाई, पुत्री कमला और पुत्र रमेश सहित वे जेल में डाल दिए गए थे।

पंडित, श्रीराम शर्मा को कृषि का ज्ञान विरासत में मिला था। जब उत्तर प्रदेश में प्रथम स्वतंत्र सरकार पंडित गोविन्दवल्लभ पंत के मुख्य-मंत्रित्व में बनी, तब पंडित श्रीराम शर्मा को ‘उत्तर प्रदेश कृषि परिषद’ का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्होंने प्रदेश में कृषि के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएँ दी थीं और उन्हीं में से एक योजना थी बंजर पड़े भू-खंडों का कृषि के लिए विकास। लाल-फ़ीताशाही में यह योजना हास्यास्पद मानी गई, तो पंडितजी ने एक चुनौती के रूप में गाँव उसायनी, कस्बा एत्मादपुर (जिला आगरा) में एक नाले के कारण कई एकड़ वीरान-बंजर पड़ी जमीन को अपने ज्ञान, अनुभव और श्रम से ऐसा उपजाऊ बनाकर दिखाया कि बड़े-बड़े कृषि विज्ञानी चमत्कृत हो गए थे। यह भूखंड सरकार ने पंडित जी के नाम पर दिया था, जो आजकल ‘उसायनी का नवजीवन फार्म’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ खड़े घने वृक्ष और लहलहाते खेत पंडित जी के अद्भुत कृषि-पांडित्य का परिचय देते हैं। वृद्धावस्था तक बल्काबस्ती और यह नवजीवन फार्म ही पंडित जी के निवास का मुख्य स्थान रहे।

बचपन से ही पंडित श्रीराम शर्मा शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखने में विश्वास रखते थे। वे नियमित रूप से नित्य व्यायाम करते, परिश्रम के सभी घरेलू कार्यों में भाग लेते, दौड़-धूप के सभी खेल खेलते और दूर-दूर तक पद-यात्रा करते थे। गिल्ली-डंडा और कबड्डी उनके प्रिय खेल थे। कबड्डी में तो उन्हें बड़े-बड़े लड़के भी हरा नहीं पाते थे। उन्हीं के शब्दों में…‘‘कबड्डी का भी बचपन और स्कूली जीवन में इतना अभ्यास था कि कभी भी इन पंक्तियों के लेखक को कोई मार न सका। एक बार उस समय के ई. सी. स्कूल खुर्जा और संस्कृत पाठशाला के कबड्डी मैच में स्कूल की ओर से दो दिनों तक अकेला ही मुझे खेलना पड़ा और खेल अनिर्णीत ही रहा। थकावट तब क्या थी क्या मैं जानता था?

पंडित जी को बंदूक चलाने का बहुत शौक था। वे दौड़कर निशाने पर गोली मार देने में सिद्धहस्त थे । ‘नवजीवन फार्म’ जहाँ बना, वहाँ नाले की दोनो ओर कई मील तक रेतीली ज़मीन का सुनसान वातावरण रहता था । इस नाले में और आस-पास डोर तक चोर, ठग, डाकू आदि छिपे रहते थे ।

अँग्रेज़ी शासन-काल में यहाँ चारों ओर अकथनीय भय और आतंक छाया रहता था। आगरा से टुंडला होकर फ़ीरोजाबाद की ओर जाने वाली सड़क पर शाम होते ही यात्रा करना खतरे से खाली नहीं था। कहानी नहीं, यह सत्य था कि जब कोई निकलता था, तब उसे लूटने के लिए नाले में छिपे लुटेरे अचानक बाहर आ जाते थे। उस समय यह लोकगीत प्रसिद्ध हो गया थाः

‘‘बैरंगिया नाला जबर जोर।
जहँ रहत साधु के वेश चोर।
धग्-धगा धन्न धन् धीन धीन
झट एक-एक पै तीन-तीन।’’

ये पंक्तियाँ कई रूपों में प्रसिद्ध हैं, किन्तु अर्थ यही है कि एक-एक यात्री को तीन-तीन लुटेरे दबोच लेते थे। जब पंडित श्रीराम शर्मा ने यहाँ कृषि योजना के निमित्त अपना तंबू ताना, तो एक रात डाकुओं का एक गिरोह आ पहुँचा और भाँति-भाँति से पंडितजी को धमकाने लगा, ताकि वे वहाँ से चले जाएँ। पंडितजी के साथ ‘मामा’ नाम से संबोधित हरिभजन शर्मा रहते थे। वे भी बहुत बहादुर और बंदूक के निशाने में दक्ष थे पंडित जी ने उन डाकुओं से कहा, ‘‘अगर तुम लोग मुझे भगाने पर ही तुले हो तो सुनो, मैं ऐसे भागने वाला नहीं हूँ।’’ इतना कह कर उन्होंने तंबू में जाकर अपनी बंदूक लाने का आदेश हरभजन को दिया। बंदूक हाथ में आते ही पंडितजी ने हवा में गोेली दाग दी। दस्यु सरदार हँस पड़ा, ‘‘पंडित जी! क्षमा करें, आप यहीं रहें, हम ही चले जाते हैं।’’ और वही हुआ। ऐसे अनेक अवसर आए, जब पंडित जी ने अकेले ही डाकुओं का सामना किया। मैं अनेक बार पंडित जी के साथ ‘नवजीवन फार्म’ बनने से पहले और उसके बाद भी इस बियाबान एकांत सुनसान में रहा हूँ और पंडित जी की बहादुरी, साहस तथा उत्साह के ऐसे अनेक कारनामें अपनी आँखों से देखे हैं उनके इन्हीं गुणों का परिणाम था कि डेढ़ सौ एकड़ रेतीली भूमि पर एक ऐसे ‘फार्म’ का विकास हुआ जिसके प्रत्यक्षदर्शी चकित रह जाते थे। उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह तथा अन्य कई सर्वोदयी नेता फार्म (आश्रम) में प्रवेश द्वार पर जूते उतार देते थे, कहते थे-यह आश्रम एक मंदिर है, यहाँ जूते पहनकर जाना अधर्म है। प्रसिद्ध कवि (स्व0) रामइकबाल सिंह ‘राकेश’ के शब्दों में पंडित जी के कृषि-ज्ञान, वनस्पति विज्ञान एवं प्रकृति-प्रेम का श्रम की कसौटी पर कसा ‘नवजीवन फार्म’ का यह चित्रण अब भी उनके पुरूषार्थ का साक्षी हैः

‘‘वहाँ की भूमि जगह-जगह बबूल, नीम आम, अशोक, अर्जुन, सागौन, शिरीष और कदंब के हरे और चिकने पत्तेवाले वृक्षों से सुशोभित थी। नीबू, आँवला, मिसेज बक और मिसेज वट के झाड़ों और रमणीय कुंजों से वह मनोहर प्रतीत होती थी। केले, पपीते, शहतूत, सेजना, शीशम और अमलतास के वृक्ष ‘सरसराती हुई हवा से कंपित होरक वहाँ की शोभा का विस्तार करते थे। खेतों में ज्वार के पौधे लहलहा रहे थे। झाड़ियों में मयूर-मयूरियों के बीच में, पंख खड़े होकर नाचते दिखाई पड़ते थे।’’

इन पंक्तियों से पंडितजी की अभिरूचियों का सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। श्री राम इकबाल सिंह ‘राकेश’ के ही शब्दों में, ‘‘कृषि और साहित्य के समन्वय की चर्चा करते हुए शर्मा जी ने मुझसे कहा था कि प्राचीन काल में गीता के प्रवक्ता श्रीकृष्ण ने वृंदावन की गोचर भूमियों में गाएँ चराई थीं, उनके अग्रज बलराम ने हल चलाए थे और उन्होंने भारतवासियों की आर्य संस्कृति का अमर संदेश सुनाया था। कृषि की उन्नति के लिए विदेहराज जनक ने भी हल चलाए थे और तब आम्र-कानन मिथिला में सीता का आविर्भाव हुआ था। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब और विश्वबंधुत्व के संदेश-वाहक प्रभु ईसा मसीह बकरियाँ और भेड़ें चराया करते थे। अगर कबीर जुलाहे का कार्य न करते होते तो उनकी चिरस्मरणीय कविता ‘झीनी-झीनी बीनी चदिरया’ आज पढ़ने को नहीं मिलती।’’

कृषि अर्थात् श्रम में तन-मन से रमे पंडित श्रीराम शर्मा स्वस्थ शरीर की साधना के प्रबल समर्थक बचपन से ही थे। ‘नवजीवन फार्म’ पर तो उन्होंने बाद में ‘अखाड़ा’ बनवाया, उससे पहले वे वल्काबस्ती के मकान के आँगन में अपने हाथ से लगाए अमरूद के पेड़ के नीचे ‘अखाड़ा बनवा चुके थे और उदयन पुत्र को शैशव से ही पहलवानी की शिक्षा दिलाते रहे थे, जिसके लिए उन्होंने पंजाब से एक पहलवान बुलाकर बहुत समय तक कुश्ती-शिक्षक के रूप में रखा था। वे स्वयं भी एक अच्छे पहलवान थे और कुश्ती के सभी दाँव-पेंच जानते थे। कुश्ती-समारोहों में उन्हें अध्यक्षता के लिए उसी सम्मान से बुलाया जाता था, जिस सम्मान से कृषि समारोहों और साहित्यिक सभाओं में प्रतिष्ठित किया जाता था।
स्वभाव से पंडितजी जितने गंभीर थे, उतने ही सरल और उदार भी। छल-कपट और असत्य आचरण करने वालों से उन्हें बहुत चिढ़ थी। छोटे-से-छोटे व्यक्ति को भी वे प्यार और आदर देते थे। मुझे यहाँ अपने साथ घटित एक प्रसंग याद आता है। मेरा मन-मस्तिष्क इस देव-पुरूष के इस व्यवहार की स्मृति में अब भी शत्-शत् नमन कर उठता है। बात उस समय की है, जब पंडित जी, उत्तर प्रदेश में प्रथम स्वतंत्र सरकार के गठन के समय अनेक उच्च पदों पर प्रतिष्ठित थे और ‘लकी’ कहलानेवाले बटेश्वर के प्रसिद्ध ‘शिवतीर्थ मेला’ के अध्यक्ष थे। पूर्णमासी की रात्रि में प्रतिवर्ष वहाँ लाख-दो लाख श्रोताओं के समक्ष कवि-सम्मेलन होता था। मैंने युवावस्था में प्रवेश ही किया था। एक कविता पढ़ी। मंच से पंडित जी ने ‘वाह-वाह’ तो की ही, पातः अपने ‘तंबू’ पर बुलाकर नाम-पता भी पूछा। दूसरे दिन जीप लेकर मेरे घर जा पहुँचे। टूटी खाट पर बैठकर मेरी दादी अमृता देवी मिश्रा के हाथों से मथी छाछ का गुड़ के साथ पान किया और मुझे आगरा भेजने का दादी से वचन ले गए। गाँव के लोगों की भीड़ मेरे आँगन में लग गई थी और लोग हतप्रभ थे कि अपने समय का इतना बड़ा और प्रसिद्ध आदमी और ऐसी सरलता-उदारता! किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पंडित जी में कहीं किसी प्रकार की कठोरता नहीं थी। वे अत्यधिक स्वाभिमानी और अपने विश्वासों के लिए सर्वस्व निछावर कर देने वाले व्यक्ति थे। वे क्रोधी नहीं थे, किन्तु किसी को अनुशासन के बाहर काम करते समय उनका डर लगता था। वे दो टूक बात करने वाले स्पष्टवादी व्यक्ति थे। आगरा के साहित्यिक परिवार में उनके स्वभाव और आचरण की पवित्रता की धाक थी।
पंडित जी का स्वभाव व्यवहार और चिन्तन समान रूप से आदर्श थे। आज तो इस प्रकार के किसी व्यक्ति की कल्पना भी असंभव है। वे स्वाधीनता संग्राम में भाग लेते समय अनेक बार जेल गए, वहाँ अनेक ठोर यातनाएँ झेलीं, अनेक प्रकार से उनके जीवन-साधन अंग्रेज सकरार ने नष्ट किए, किन्तु उन्होंने कभी हार तो मानी ही नहीं, बल्कि जब देश आजाद हुआ तब स्वाधीनता सैनिकों को मिलने वाली सभी सुविधाओं को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि मैंने मातृभूमि का ऋण चुकाया है, उसके बदले में कुछ भी लेना मेरी दृष्टि मेरे लिए अधर्म है। एक प्रसंग का मैं स्वयं साक्षी हूँ। तत्कालीन गृहमंत्री श्री जगन प्रसाद रावत पंडित जी के अध्ययन-कक्ष में आए। वे विशाल भारत के संपादकीय लिखने के लिए तैयारी कर रहे थे। रावत जी ने एक फार्म पंडित जी को देते हुए उस पर हस्ताक्षर कर देने का आग्रह किया। वह फार्म स्वतंत्रता-सेनानियों के पुत्रों के लिए बिना परीक्षा आदि की औपचारिकताएँ पूरी किए ‘प्रांतीय पुलिस सेवा’ में नियुक्ति के लिए था। रावत जी रमेश जी (उनके बड़े पुत्र) की इस पद पर नियुक्ति के लिए उनकी स्वीकृति चाहते थे। पंडित जी ने उस फार्म के चार टुकड़े किए और रमेश जी को बुलाकर वे टुकड़े थमाते हुए कहा कि स्वतंत्रता सेनानी के नाते नहीं, अपनी योग्यता के बल पर जो बनना चाहो बनो। इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण उनके अंतिम दिनों का है। जब वे अपनी आँखों की रोशनी खोकर अस्पताल में रोग-शय्या पर थे और तत्कालीन मुख्यमंत्री कोष से उनके इलाज के लिए प्राप्त चेक उनकी बड़ी पुत्री कमलाजी ने उन्हें दिया था, जिसे उन्होंने सादर अस्वीकार कर दिया था। इन उदाहरणों से पंडित जी के आदर्श-मय जीवन का सहज की अनुमान लगाया जा सकता है।

पंडित जी मूर्तिपूजक नहीं थे, किन्तु सनातन धर्म में पूर्ण विश्वास करते थे। तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे। आँखों की रोशनी चली जाने के पश्चात् भी वे किसी न किसी को अपने पास बिठाकर रामचरितमानस का पाठ सुना करते थे। फलतः अधिकांश रामचरितमानस उन्हें कंठस्थ हो गई थी। शिकार में रूचि होते हुए भी वे पूर्णतः शाकाहारी थे। रोटी शाक-सब्जी, दही-दूध, रायता और फलों में आम एवं संतरा उनके प्रिय भोजन थे। अचारों में टेंटी का अचार और आलू से अधिक रतालू उन्हें बेहद पसंद थे। जब उन्हें मजाक सूझता था तो हँसते हुए मित्रों से पूछने लगते थे कि, ‘‘क्या भैस का दूध पीते हो? …तभी भैंस-बुद्धि हो।’’

चरखा चलाना और हाथ के कते सूत के धोती-कुर्ता-टोपी में रहना उनको पसन्द था। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। वे नियमित जीवन में विश्वास करते थे। सूर्योदय से पूर्व चारपाई छोड़कर नित्य कर्म से निबट घूमने निकल जाना और समय पर स्नानादि व्यायाम व भोजन आदि से निवृत्त होकर अपनी दिनचर्या को पूरा करना उनका स्वभाव था। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर मुख्य घटनादि की टिप्पणियाँ नोट करना और अपने पुस्तक-संग्रहालय में नवीनतम ग्रंथों को खरीद कर रखना-पढ़ना, उन्हें पसंद था। साहित्य, विज्ञान, समाजशास्त्र, कृषि, राजनीति और संगीत में उनकी जितनी गहरी रूचि थी, उतना ही इनका गंभीर ज्ञान भी उन्हें था। प्राचीन भारतीय साहित्य से लेकर बहुतप्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यिक कृतियों एवं प्रवृत्तियों तक तो उनकी आश्चर्यजनक पहँुच थी ही, पाश्चात्य एवं भारतीय संगीत के भी वे अद्भुत ज्ञाता थे। सितार और तबला बजाने में वे सिद्धहस्त थे। फोटोग्राफी का भी उन्हें बेहद शौक था, इसलिए कलम, बंदूक कैमरा और सितार के कारण वे चतुर्भुज माने जाते थे।

ऐसे बहुत कम साहित्यकार होते हैं, जो साहित्य-सेवा करते हुए सामाजिक और पारिविारक उत्तरदायित्वों का सम्यक् रूप से निर्वाह कर पाते हैं। पंडित जी में ये गुण दूसरो के लिए उस समय तो आदर्श थे ही, इस समय और भविष्य मे भी सदा आदर्श रहेंगे।

शिक्षा-दीक्षा के समय से जीवन के अंत तक पंडित जी ने क्या-क्या कार्य किए एवं नौकरी आदि के अलावा उनकी सेवा के प्रमुख क्षेत्र कौन-कौन से रहे, जिनके कारण वे सबसे अलग प्रकार का ऐसा साहित्य लिख सके, जो हिन्दी साहित्येतिहास का सदा गौरव-पूर्ण अध्याय रहेगा-यह सब यथा-संदर्भ आगे प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ केवल शेष वह प्रसंग है, जो इस अविस्मरणीय महान् हिन्दी साहित्यकार को अंतिम यात्रा पर ले जाता है।

फरवरी 1967 ई. में पंडित जी ने कहा था कि ज्योतिष के अनुसार ‘माकेश’ लग जाने के कारण मेरी मृत्यु का योग है। यदि पहली मार्च निकल गई तो फिर आँखों के बिना भी बहुत समय तक इस संसार में बहुत कुछ देखना-सुनना होगा। लेकिन नहीं निकला फरवरी मास। अचानक 27 फरवरी 1967 ई. को महाकाल ने इस महापुरूष की हृदय-गति रोक दी। पहले से ही बाहरी दुनिया के अभिशापों को न देख सकने के कारण बंद हो जाने वाली उनकी अंतर्भेदी आँखें ज्यों-की-त्यों खुली रह गईं। एक विचित्र संयोग देखिए कि उसी तारीख 27 फरवरी को उसी समय (सांय काल) छह वर्ष पश्चात् 1973 ई. में उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी का भी महाप्रयाण हुआ। यों पंडित जी शरीर से तो यह संसार छोड़ गए, किन्तु अपने महान् कार्यों एवं आदर्शो के कारण वे सदा अमर रहेंगे।