मानवता की पुकार – ‘बोलती प्रतिमा’

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ सेनानी, ‘विशाल-भारत’ पत्रिका के यशस्वी सम्पादक पं0 श्रीराम शर्मा पं0 श्रीराम शर्मा हिन्दी साहित्य में शिकार साहित्य के प्रणेता, सर्वश्रेष्ठ और एकमात्र लेखक के नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त के हिन्दी के रेखाचित्र लेखन में भी अग्रणी है। स्व0 बनारसीदास चतुर्वेदी ने उन्हें सम्पादकाचार्य ‘पं0 पदम् सिंह शर्मा का असली उत्तराधिकारी कहा है। चतुर्वेदी जी के अनुसार यह भी सत्य है कि ‘बोलती प्रतिमा’ प्रकाशित होने से पूर्व लोग शर्मा जी को शिकारी मानते थे। यह शर्मा जी को पसन्द भी नहीं था। इसका मुख्य कारण यह भी रहा कि वर्षों तक शर्मा जी अपने बहुत अच्छे-अच्छे लेख बिना नाम के या उपनाम से छपाते रहे थै। उसी का दुष्परिणाम वह हुआ कि लोग उनके व्यक्तित्व का यथोचित अनुमान नहीं लगा सके। इस लेख में उनकी अनूठी कृति ‘बोलती प्रतिमा’ की अन्तस की पुकार उसकी अभिप्रेरणा को तत्कालीन संदर्भो में विचार करने की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है।

किसी लेखक की कृतियों का अध्ययन बहिर्लक्षी और अन्तर्लक्षी दृष्टि से किया जाता है। बहिर्लक्षी आयाम में साहित्य की सांस्कृतिक परिस्थितियों या पृष्ठभूमि का अध्ययन होता है। अन्तर्लक्षी दृष्टि से लेखक की साहित्यिक अभिप्रेरणा, विचार, आदर्श कला के उद्देश्य और प्रभविष्णुता, अभिव्यक्ति की शैली के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन होता है। इन दोनों पक्षों का समन्वय-संतुलन ही श्रेष्ठ साहित्य का निर्माण करता है।

हिन्दी साहित्य की विकास-परम्परा की विषम परिस्थितियों में उसका स्त्रोत भूमिगत सा था। 18वीं शताब्दी से अनुकूल परिस्थितियों की राह जोहती द्विवेदी युग तक आते-आते साहित्य, भगीरथों की शक्ति पाकर, प्रतिकूल देशव्यापी परिस्थितियों में भी यह स्त्रोत विभिन्न धाराओं में फूट निकला। उसी युग में सदी के द्वितीय दशक में द्विवेदी जी, प्रेमचन्द तथा पं0 पदम् सिंह शर्मा के साहित्यिक मानदंड बनाकर और सिर पर आजादी की सर-फरोशी की तमन्ना का कफन बाँधे, बहुमुखी प्रतिभा का धनी एक कलम का सिपाही हिन्दी साहित्य में प्रगट हुआ-पं0 श्री शर्मा। उनकी 1996-97 की जन्मशती पर मैं उनकी कृति बोलती प्रतिमा का शीर्षक के संदर्भ में मूल्यांकित कर रही है।

पूर्व में बहिर्लक्षी और अन्तर्लक्षी दृष्टि की चर्चा हो चुकी है। आधुनिक साहित्य का अभ्युदय पाश्चात्य साहित्य और संस्कृति के संपर्क तथा तदजन्य संघर्ष का परिणाम है। जिसमें जुड़ी है अनेक भारतीय प्राचीन साहित्य की परम्पराएँ और मुगलकाल के अन्त और अवसान की गथाएँ। यह संघर्ष की स्थिति थी। प्रबुद्ध भारतीय चेतना का अभ्युदय अंग्रेजी साहित्य के पठन-पाठन, अंग्रेज अफसरों, प्रचारकों, शासन से प्राप्त विद्रोह और प्रेरणा, शिक्षा और राजनीति के द्वारा प्राप्त किया-प्रतिक्रिया से हुआ। यदि आत्मपरकता का दोष न लगे तो यहाँ यह कहना उचित होगा कि ‘बोलती प्रतिमा’ के लेखक को-जब वे चौथी कक्षा के छात्र थे पता चला कि हमारे देश हिन्दुस्तान पर ब्रिटेन के सम्राट का शासन है, तब बालक श्रीराम उस रात सोया नहीं। दूसरे ही दिन उसने एक पोस्टकार्ड सम्राट को लिखा कि तुम फौरन हमारा देश छोड़ कर चले जाओ नहीं तो हम सब बच्चे खड़े होकर तुम्हें मार-मार कर भगा देंगे। यह तो पाठक समझ ही रहे होंगे कि वह पोस्ट कार्ड पहुँचा या नहीं। जिस व्यक्ति के अन्तस में भारतमाता के प्रति और आजाादी की बाल्यावस्था से ही इतनी ललक और लगाव, देश की मिट्टी, देशवासियों के प्रति अटूट ममता हो वही ‘बोलती प्रतिमा’ जैसी कृति का सर्जक हो सकता है। आज सत्तामद में मदान्ध प्रयोजनवादी दलितों के मसीहा बनने का जो ढोंग हो रहा है और ‘अहो रूप अहो ध्वनि’ की भाँति भावात्मक एकता का अभूतपूर्व जातिवादी नाटक हो रहा है उसमें राष्ट्र-भाषा तो कराह ही रही है साथ ही ऐसे व्यक्तियों के अन्तर्मन की कालिमा भावात्मक प्रदूषण फैला रही है। ऐसे लोगों को अपना प्रदूषण कम करने के लिए ऐसी कृृतियों को पढ़ना चाहिए। अस्तु अन्तर्लक्षी और बहिर्लक्षी पक्षों को स्पष्ट करते हुये इस पुस्तक की प्रस्तावना से लेखक के उद्गार प्रस्तुत करना समीचीन होगा।

‘कठोर सत्य तथा संघर्ष लेखक की मार्मिक वेदना, जीवन के घात प्रतिघात और मानसिक द्वन्द्व का रूप ही शब्दों में है-‘बोलती प्रतिमा’ पुस्तक का प्रत्येक रेखाचित्र एक मंदिर है और उसमें स्थापित हर प्रतिमा बोलती है, सजी है।’

आगे लेखक के कथन से उसका जीवन दर्शन स्पष्ट होता है-‘प्रतिकूल परिस्थितियों से युद्ध करने की प्रवृत्ति ही जीवन है और जीवन एक कहानी है जिसकी गति नदी के प्रवाह के समान घटती-बढ़ती रहती है। उसका एक-एक अंग सामने आता है और कहानी भी मनुष्य के जीवन के एक-एक अंग का चित्रण है।’

कला और उसकी उपयोगिता पर लेखक ने स्पष्ट कहा है कि साहित्य में वही टिकाऊ होता है जिसमें कला और उपयोगिता का समन्वय हो। आत्मा और शरीर का जब तक समन्वय नहीं होता तब तक संसार के विचित्र प्राणी मनुष्य की सृष्टि नहीं होती है। इसी प्रकार जब तक कला और उपयोगिता का संगम नहीं होता तब तक उच्चकोटि का साहित्य भी लोकोपकारी नहीं होता।

लेखक का अन्तःकरण पर दुःखकातरता से ओत-प्रोत और धरती माता से उसका अटूट लगाव है। इसीलिए इस कृति के रेखाचित्र शोषण के विरूद्ध उठी एक ऐसी आवाज है जो कठोर सत्य और संघर्षो पर आधारित है। इस पुस्तक में कुल 15 रेखाचित्र तथा कहानियाँ हैं।

इस कृति की सभा रचनाओं का अति संक्षेप में क्रमानुसार परिचय हैः

  1. बोलती हुई प्रतिमा-(रेखाचित्र)-जगन्नाथ-इसे लेखक ने पुस्तक की रचनाओं की मात्रा का सुमेरू माना है यह रेखाचित्र विदेशो में भी प्रकाशित है। श्री धरान्निकोव इसके उदाहरण है।
  2. ठाकुर की आन-(रेखाचित्र)-ठाकुर बलवन्त सिंह-जमींदारी प्रथा का स्वाभिमानी विद्रोही।
  3. हरिनामदास-(रेखाचित्र)-हरिनामदास-अम्बाला का निवासी, भागा हुआ बालक युवावस्था में बगदाद का ऐय्याश व्यापारी, मुनी की रेती का पकौड़ीवाला परोपकारी।
  4. गीली लकड़ियाँ-(रेखाचित्र)-साइबेरिया की कैद से भागा कैदी जो वर्षा के तूफान में मरा, उसने जो आग कभी ठंडी न होगी-वह आजाादी की चिंनगारी की प्रतीक है।
  5. वरदान-(प्रेम कहानी)-नगेन्द्र गोहाटी का युवक आजादी का सैनिक अपनी प्रेमिका से स्वयं को दूर चले जाने का वरदान माँगता है।
  6. पीताम्बर-(रेखाचित्र)-पीताम्बर कुम्हार, परोपकारी पशु चिकित्सक।
  7. वसीयत -(कहानी)-लेखक के मित्र के के छोटे भाई की कथा जो अपनी वसीयत में अपने क्रियाकर्म की रूढ़ियों की औपचारिकता के निर्वाह का विरोध लिखता है।
  8. फिरोजाबाद की काल कोठरी-(सत्य कथा)-जीवाराम-लेखक के छोटे चचेरे भाई जो सम्प्रदायिक दंगों में मुसलमानों द्वारा लगाई आम में सपरिवार बलिदान हुए।
  9. अपराधी-(रेखाचित्र)-मोहन नीजल जिसे परिस्थिति वश अपने चचेरे भाई गुण्डे पृथ्वीपाल को सगे भाईयों सहित मौत के घाट उतारना पड़ता है।
  10. चंदा-(रेखाचित्र)-चंदा चमार जो जमींदार के अत्याचारों का शिकार है।
  11. रत्ना की अम्मा-(रेखाचित्र)-रत्ना चमार की माँ जो शोषित वर्ग की साक्षात् प्रतिमा है।
  12. इकाई का सौदा-(रेखाचित्र)-संकट ब्राह्मण जमींदार द्वारा प्रताड़ित अपमानित विद्रोही जमींदार की हत्या करके अदालत में हाजिर होता है।
  13. शीर्षकहीन कहानी-(रेखाचित्र)-चमेली नामक चमार युवती जो जिलेदार द्वारा प्रताड़ित है।
  14. ऐमुन तैमुन तिरिकिटता-(कहानी)-दो पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों की मनो-वैज्ञानिक कथा।
  15. इदन्नमम-(रेखाचित्र)-मुश्किन-जारशाही के विरूद्ध युवकों के सरताज चरनिशेवस्की को कैद से छुड़ाने के प्रयासों के कारण दंड स्वरूप गोली मारी गई। उसने मरते हुए उसे अपनी सफल आहुति माना।

इन सभी रचनाओं के पात्र किसी न किसी पीड़ा से ग्रसित मानवता की मानव मूल्यों की पुकार करते प्रतीत होते हैं। लेखक ने प्रत्येक रचना के अन्त में या फिर संदर्भ से अपने उद्गारों को व्यक्त किया है। जैसे ‘चंदा’ रेखाचित्र में उन्होंने लिखा-‘चंदा कंकड़ों का गड्ढा नहीं खोद रहा, वरन् जमींदारी प्रथा की कब्र, जिसमें यदि अत्याचार की यही गति रही तो जमींदारी-प्रथा की पूतना गढ़ जायेगी’ चमेली, (शीर्षकहीन कहानी) जैसे रेखाचित्र भी इसी क्रम में है। पीताम्बर जाति का कुहार है, समाज सेवी पशुचिकित्सक है। ‘ठाकुर की आन’ भी जमींदारी जुल्मों पर आधारित ठाकुर बलवन्त सिंह की कहानी है। बलवन्त सिंह अपमानित होता है वह अत्याचारों से पीड़ित है और जमींदार की हत्या कर के सपरिवार बलिदान की कथा है। लेखक ने इसके बारे में कहा है-‘फिरोजाबाद की काल कोठरी’ के बारे में क्या लिखूंगा? वह तो हमारे जीवन की एक कालिमा है और मनुष्यता के पाठ पढ़ाने के लिए उसे अंतिम सबक होना चाहिए उसने दिल पर क्लेश का नासूर पैदा कर दिया है और फिरोजाबाद के कारखानों की चिमनियाँ उसी वेदना में अपने हृदय से आह सी उगल रही है।’ यह कहानी सच्ची कहानी है। अन्त में लेखक की आत्मा पुकार उठती है और वह अपने जीवन मूल्यों को व्यक्त करता है-‘देश की खातिर हम यहाँ तक कहने को तैयार है कि यह मुहर्रम और रामलीला ढकोसला है। मंदिर मसिजद, गायत्री और कलमा सब फिजूल है जब उनसे मानवता की रक्षा नहीं होती। वे तो अमीरों और झगड़ालू लोगों के अखाड़े बन गए हैं। वहाँ पर साम्प्रदायिकता के कीटाणु पनपते हैं।

हिन्दु-मुसलमान और नौकरशाही तनक हमें बताएँ तो बिलखती विधवा को उसके बिछुड़े पति और बिलख कर प्राण देने वाले बालकों की खातिर ही बताएँ कि फिरोजाबाद के मुसलमानों ने इतने निर्दोष मानवी पुतलों के खून से अपने हाथ क्यों रंगे’?

हरिनामदास रेखाचित्र सबसे अलग पर ‘थोथा देह निकार’ की भाँति शर्मा जी ने इसमें भी जीवन मूल्यों को स्थापित किया है। इस कथा को उपदेशप्रद बताते हुए कहा है कि धन संपत्ति के गर्व से मदान्ध लोगों को उससे शिक्षा लेनी चाहिये।

कुछ रचनाएँ देश प्रेम तथा आत्म त्याग सम्बन्धी है। ‘वरदान’ -इदन्नमम्’, गीली लकड़ियाँ इसके उदाहरण है। ‘गीली लकड़ियाँ’ के अन्त में लेखक अपना उद्देश्य अपनी आत्मा की पुकार को व्यक्त करता है-‘आग बुझी मुक्त कैदी प्रसन्न वदन उठा और अंधड़ ने उसे अपने अंक में कुछ ही देर में, यह कहते हुए सुला लिया कि तुम्हारी जीवन ज्योति तो बुझ गई पर तुम्हारे जलाये हुए बुझ कर भी ठंडे नहीं हुये।’

इसी प्रकार ‘इदन्नमम’ का मुश्किन अन्त में गिरते हुए कहता है-‘मेरे शरीर की आहुति सफल हो, पर यह आहुति मेरे लिए नहीं है।’

इन सभी रचनाओं में मार्के की बात यह है कि सभी में लेखक का दृष्टिकोण मनुष्य के आंतरिक मूल्यों पर आधारित है। ये पीड़ित और शोषित मानवता की पुकार है। इनमें वर्ग भेद नहीं है, जातिगत धर्मगत कोई भेदभाव नहीं है, फिर चाहे वह पात्र जगन्नाथ जैसे शारीरिक यातनाएँ भोग रहा हो, बलवन्त सिंह जैसे ठाकुर हों, संकट जैसे ब्राह्मण हों, पीताम्बर कुम्हार हों, या फिर चंदा, चमेली और रत्ना की माँ जैसे चमार हो अथवा डॉ0 जीवाराम जैसे साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिए गये सज्जनता की—मूर्ति हो। इस कृति में कहीं भी (शर्मा जी के पूरे साहित्य में कहीं भी) ऐसा आभास भी नहीं होता कि उसका झुकाव किस वर्ग, किस सम्प्रदाय या किस जाति के प्रति है। जो उस समय की व्यवस्था में दुखी, पीड़ित और प्रताड़ित था उसी की अन्तर्गआत्मा की पुकार की प्रतीक यह रचना ‘बोलती प्रतिमा’ है। इनकी मूल स्थापनाओं को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. राष्ट्रप्रेम, त्याग और बलिदान।
  2. पीड़ितों का उद्धार।
  3. जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की प्रबल आकांक्षा जो सन 1952 में सप.ली.-भूत हुई।
  4. लोकोपकारी उपयोगी साहित्य का मानदंड।
  5. नैतिक मूल्यों की स्थापना।
  6. पर दुख कातरता, विशेषकर दलितों तथा शोषितों के प्रति।
  7. प्रकृति प्रेम।

इन रेखाचित्रों के माध्यम से इतने मानदण्डों को एक ही पुस्तक में स्थापित करना अपने में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। हिन्दी साहित्य में इस तरह के प्रयास नहीं हुए, रेखा-चित्र लिखे गये परन्तु उन्हें फुटकर रूप ही माना जायेगा। शर्मा जी के रेखाचित्र सशक्त और सफल कहे जाते हैं। क्योंकि शब्दों के माध्यम से चरित्र का ज्यों का त्योंखाका खींच देना कठिन कार्य है। जिस प्रकार कोई चित्र रंगों के थोड़े से अन्तर से बिगड़ सकता है। रेखाचित्र भी उसी प्रकार विकृत हो सकता है। जिस व्यक्ति को जीवन के विचित्र अनुभव प्राप्त नहीं हुये, जिसने आँखे खोलकर दुनियाँ नहीं देखी और सबसे बड़ी बात यह कि जो कभी जीवन संग्राम में जूझा नहीं और मनोवैज्ञानिक घात प्रतिघातों से नहीं गुजरा वह सजीव चित्रण नहीं कर सकता। कहने का तात्पर्य यह कि रेखाचित्र लिखने के लिए चित्र की ही भाँति सभी हल्के गहरे रंगों की अनुभवों की आवश्यकता है वे सारे अनुभव और इनको प्रस्तुत करने की कला पण्डित श्रीराम शर्मा के पास थी। चन्दा चमार का शब्द चित्र चन्दा का सही यथार्थ प्रस्तुत करता है-‘लँगोटा पहने, नंगे शरीर, नंगे पैर कुदाली के सहारे चन्दा खड़ा था। उसकी दग्ध आत्मा उसके रोम-रोम से प्रस्फुटित होकर जमींदारी प्रथा को शाप दे रही थी।’

पण्डित श्रीराम शर्मा के जीवन रेखाचित्रों को उनकी भाषा शैली ने अमर कर दिया है। इस प्रभावशाली लेखन शैली ने उनके देहाती जीवन, टिहरी गढ़वाल के वन्य-प्रदेश अंग्रेजी भाषा का उत्तम ज्ञान, अरबी फारसी का ज्ञान और साहित्य के अतिरिक्त विभिन्न विषयों (भौतिकी, जीव-विज्ञान, भूगोल, इतिहास, खेती तथा बागवानी संगीत आदि) की गहरी जानकारी है। उनकी भाषा शैली में बहुत आसानी से यह तथ्य मिल सकता है। संगीत में मृदंग के बोल ठुमरी, दादरा के उदाहरण, सूत्र वाक्य, हिन्दी अंग्रेजी अरबी, फारसी के मुहावरे आदि इसे जीवंत बना देते हैं। ‘घृणा आत्मा का यक्ष्मा है, ‘मुनतुरा हाजी बिजोयम, तू मिरा काजी बिजो’ (मैं तुझे हाजी कहँू और तू मुझे काजी कह) जैसे, सूत्र, वाक्य, मुहावरों के अलावा वातावरण संदर्भो में यथार्थ आंचलिक शब्दों का प्रयोग भी रेखाचित्रों को सजीव बनाता है। इसीलिए उनकी शैली के बारे में कहा गया कि ‘वे उत्तरोत्तर गजब ढा रहे हैं। बन्दूक के बढ़कर उनकी लेखनी का निशाना बैठता है। पढ़नेवाला तड़प कर रहा जाता है। उनकी रचनाओं के शीर्षक बहुत ही सार्थक है। लेखक ने ‘नयना सितमगर’ शीर्शक के संदर्भ में कहा है। रचना तैयार करके मैं हफ्तों शीर्षक के बारे में सोचता हँू और तब लेखनीबद्ध करता हँू। ‘बोलती प्रतिमा’ पर उनका कथन सटीक बैठता है।
शर्मा जी कहते थे कि ‘अन्याय के विरोध में प्रचार करना मैं गौरवजनक ही मानता हँू।’ पं0 श्रीराम शर्मा जी में उनके भाषाविद, साहित्कार से भी अधिक उनका मनुष्यत्व सर्वोपरि है। उन जैसे परदुखकातर व्यक्ति हिन्दी जगत में बिरले ही होंगे। पंडित श्रीराम शर्मा के साहित्य की एक त्रुटि उनके साहित्य में प्रेम-प्रसंगों का अभाव बताया गया। इस संदर्भ में मेरी प्रतिक्रिया दो रूपों में प्रगट होगी प्रस्तुत पुस्तक में ‘वरदान’ कहानी प्रेमकहानी है परन्तु वह प्रेम एक बड़े आदर्श में परिवर्तित है। छायावाद के कवियों ने प्रकृति के रूप और व्यापार पर अनेक मानवीय रूप व्यापारों को आरोपित करके उसका मानवीकरण किया है। ऐसे वर्णन स्वतन्त्र या आलंबन रूप के प्रकृति-चित्रण कहे गये हैं। शर्मा जी के साहित्य में ऐसे चित्रणों की भरमार है। ‘शीर्षक हीन कहानी’ से एक दाहरण प्रस्तुत है-‘……….पर रामगंगा का भृकुटि-विलास, भाव भंगी बेजोड़ ही है। गंगा महारानी की किसी भी यौवन-मदमाती सखी का यह ताव नहीं कि रिझाने की किसी भी कला में रामगंगा को हरा सके। गात की भझौली भाव की गंभीर रामगंगा की छटा को बरेली, मुरादाबाद, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद और हरदोई जिले में देखिए। हरित तृणों की झालादार साड़ी पहने, उभरते गात से, फुदकती और मचलती, मुड़-मुड़ कर देखती और यौवन-बाढ़ में अनेक मस्त वृक्षों को बहाती रामगंगा एक विचित्र ही नदी है। अनेक मकानों को अपने गर्भ में रखती भोजन-सा करती मीलों तक खेतों को जलमग्न करती वह गंगा से मिलने बढ़ती है। किसी-किसी गाँव के पास तो उसे पीहर की याद आ जाती है, और लौट-लौट कर चक्कर लगा कर घायल साँप की भाँति पलटा खाकर कुछ ढँूढती सी वह अपना मार्ग बनाती…….।यह वर्णन बिहारीलाल की अल्हड़ नायकिा और पंत की छायावादी कविता से किसी भाँति कम नहीं है। प्रस्तुत लेख में इस पुस्तक को सीमित दृष्टि से ही मूल्यांकित किया गया है। यह कृति विस्तृत अध्ययन की अपेक्षा रखती है।

हिन्दी की महान् विभूति पं0 श्रीराम शर्मा को उनकी जन्मशती पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हुये मैं कहँूगी कि ‘बोलती प्रतिमा’ की ‘पुकार’ तो जो है सो है ही परन्तु ऐसी अतुलनीय कृति हिन्दी साहित्य-जगत में आज तक अन्य नहीं है।

डॉ. सरोजिनी शर्मा
पूर्व विभागाध्यक्ष, प्रशिक्षण, विभाग
केन्द्र हिन्दी संस्थान, आगरा।