‘प्राणों का सौदा’ में शर्माजी का जीवन दर्शन

पं0 श्रीराम शर्मा हिन्दी-साहित्य में तीन विधाओं के जन्मदाता माने जाते हैं। हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें शिकार-साहित्य, रेखाचित्र-संस्मरण तथा भेंटवार्ता नामक विधाओं के जनक के रूप में वर्णित किया है। शर्माजी की आरम्भिक दो पुस्तकें ‘बोलती-प्रतिमा’ तथा ‘शिकार’ हैं। ‘बोलती-प्रतिमा’ में रेखाचित्र तथा संस्मरण हैं। ‘शिकार’ में कहानियाँ नहीं हैं अपितु सत्य घटनाओं पर आधारित शर्माजी के अपने शिकार सम्बन्धी संस्मरण हैं।

‘बोलती-प्रतिमा’ नाम पुस्तक दलित-दरिद्र-ग्रामीण व्यक्तियों के रेखाचित्र का संग्रह हैं, इसमें गाँव के सामान्य परन्तु सज्जन तथा परम प्रतिभाशाली अथवा अतिप्रपीड़ित एवं शोषित, (ग्रामीणों) के परम मार्मिक रेखाचित्र हैं। वर्णन-शैली एवं भाषा की दृष्टि से उनकी चित्रात्मक-प्रभविष्णुता अद्भुत है और इसीलिए वह प्रसिद्ध है। ‘शिकार’ तथा तथा ‘बोलती-प्रतिमा इस शर्ती के तृतीय शतक में प्रकाशित हुई थीं और इनके अब तक अनेक संस्करण प्रकाशित होच ुके हैं। ‘शिकार’ का अनुवाद गुजराती तथा उर्दू भाषाओं में भी हो चुका है।

शर्मा जी के विचार, उनका जीवन-दर्शन तथा उनकी संवेदना और व्यक्तित्व की सबसे प्रखर झलक उनकी पुस्तक ‘प्राणों का सौदा’ में पायी जाती है। शिकार करना केवल पशुओं की हत्या मात्र नहीं है अपितु शिकार करना एक जीवन-पद्धति है जिसमें अटूट तथा गहन प्रकृति-प्रेम एवं जीव-जन्तुओं के प्रति भावात्मक दृष्टि, आदर एवं स्नेह का समावेश है। शर्माजी मानते थे कि अच्छे शिकारी के लिए आवश्यक है कि उसे जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों का, वैज्ञानिक आधार पर, विस्तृत ज्ञान हो। उनकी मान्यता थी कि मानवों तथा अन्य जीव-जन्तुओं में एक ही अखंड आत्मा निवास करती है।

शर्माजी स्वयं शाकाहारी थे अंडा तक नहीं खाते थे, उन्होंने हिंस्त्र-पशुओं का ही शिकार किया तथा उनसे सम्बन्धित घटनाओं को ही ‘प्राणों का सौदा’ में वर्णित किया है। ‘प्राणों का सौदा’ में नायक (Hero) शिकारी ही नहीं है अपितु शेर, हाथी आदि जंगली जीव ही वीर नायक के रूप में उभर कर आते हैं। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि शर्माजी का जीव-शास्त्र तथा वनस्पति शास्त्र का ज्ञान सर्वाधिक रूप में उनकी पुस्तक ‘जंगल के जीव’ में प्रदर्शित हुआ है जिसमें कुछ पशुओं की जीवन-कथाएँ, परम रोचक रूप में वर्णित की गई हैं।

कलकत्ता स्थित ‘विशाल भारत’ के कार्यालय में पं0 पद्मसिंह शर्मा (जो शर्माजी की भाषा-शैली के परम प्रशंसक थे) पं0 बनारसी दास चतुर्वेदी, पं0 हरिशंकर शर्मा तथा श्री ब्रजमोहन शर्मा (उप सम्पादक ‘विशाल भारत’, ने सम्मिलित रूप में वर्माजी के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था कि शमाजी की नई पुस्तक का नाम ‘प्राणों का सौदा’ रखा जाय। माच 1939 में प्रकाशित इस पुस्तक के समर्पण में शमाजी ने लिखा है ‘उनको, जिनकी धमनियों में गर्म खून दौड़ रहा है और जो जीने के लिए मरना जानते हैं।’ शर्माजी के जीवन दर्शन का यही मूल-मन्त्र था। ‘प्राणों का सौदा’ में वे लिखते हैंः-

‘युद्ध में अटल नियम, मारो या मरो, का असुरण किया जाता है। लड़ाई में प्रायः वही जीतता है, जो मरना ही नहीं मारना भी जानता है। यह ठीक है जो मरना नहीं जानता वह जीना भी नहीं जानता, परन्तु सर्वदा मरना और पिटना किसी व्यक्ति या राष्ट्र के लिए श्रेयस्कर नहीं है। मध्यकालीन भारत में हिन्दुओं की हार का एक विशेष कारण था। वे मरना तो जानते थे, मरने के उनके जैसे उदाहरण कम मिलते हैं, परन्तु उन्हें मारना नहीं आता था। जहाँ मरो या मारो की स्थिति हो और कोई बचाव की सूरत ही न हो, वहाँ पहले वार करना ही हितकर होता है।’

‘प्राणों का सौदा’ की भूमिका में शर्माजी ने लिखा है ‘कई मित्रों ने प्रयास (शिकार-साहित्य लिखने का) किया परन्तु उनके लेखों में लेखन कला की मौलिकता न आ पाइ, मुख्य कारण यह था कि वे स्वयं प्रकृति के सम्पर्क में न आये थे। उन्होंने प्रकृति-देवी को उन आँखों से न देखा जिनसे उन्हें देखना चाहिये था। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण के लिए राइफल और बन्दूक की जरूरत नहीं, जरूरत है, सूक्ष्म कल्पना शक्ति, कोमल-भावना, निरीक्षण बुद्धि और अनुभूति की।’’ शर्माजी ने स्वयं कहा है कि उन्होंने शिकार को साहित्यिक और दार्शनिक जामा पहना दिया है…………….चिन्ता, भय, सुख और दुःख सम्बन्धी विचारों को अंकित करने से कथा में जान पड़ जाती है।’

‘प्राणों का सौदा’ में शर्माजी के विभिन्न पकार के विचार बिखरे पड़े हैं जो कि उनके जीवन-दर्शन को उद्घाटित करते हैं। ‘रूद्र-प्रयाग का आदमखोर’ नामक लेख में उन्होंने लिखा है, -‘राजशासन-रूपी अजगर आसानी से नहीं हिलता-डुलता। उसे तो भोजन चाहिए, भोजन करके वह सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है, यदि उसको हिलाया डुलाया जाय या लकड़ी मार दी जाय तभी वह हरकत में आ जाता है।’

इस प्रकार के तीखे विचार-बिन्दु ‘प्राणों का सौदा’ के प्राण हैं, शर्माजी की अन्य पुस्तको के समान इस पुस्तक में भी प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं भयावह चित्रण पाये जाते हैं, जिसमें मानवीकरण का प्रयोग बड़े कौशल से किया गया है। यथाः-

‘घण्टों के बाद चन्द्रमा ने गंगाजी के दूसरी ओर पर्वत शिखरों पर प्रकाश डाला और चन्द्रिका घाटी में अभिसारिका के समान नपे-तुले कदमों से सरक कर आने लगी।’

शर्माजी को हिमालय तथा अन्य पर्वतीय-प्रदेशों से विशेष प्रेम था। उन्होंने केवल पर्वतीय-प्रकृति का चित्रण ही नहीं किया अपितु पहाड़ के निवासियों की विभिन्न समस्याओं, उनकी सरलता एवं सादगी से युक्त जीवन-पद्धति का अत्यन्त स्वाभाविक तथा सहज चित्रण भी अपनी पुस्तकों में किया है।

‘प्राणों का सौदा’ में सूत्र रूप में अनेक जीवन सत्य पाये जाते हैं। ‘बदला’ नामक लेख में शर्माजी ने लिखा है ‘प्रतीक्षा और सहिष्णुता का फल अवश्य मिलता है।’ ‘अटल नियम’ नामक लेख में वे कहते हैं ‘जब लड़ाई आ बीते तब घोर युद्ध करो और उसका अन्त करके ही छोड़ो।’ ‘प्राणों का सौदा’ में अन्यत्र कहे गए कुछ सूत्र-वाक्यों को नीचे उद्घृत कर रही हूँ-

  • पीड़ा और कष्ट से, कराहट और आह निकलना इन्द्रियों का धर्म है-पशुता है। (‘अटल नियम’-पृ0 70)।
  • यदि जीवन बुरी चीज नहीं है, तो मृत्यु भी बुरी नहीं हो सकती। मौत के भेद हैं। (अपमानजनक मृत्यु-पृ0 75)।
  • कोई हँसी खुशी सूली को हार बनाता है और कोई कीड़े पड़ कर सड़कर मरता है। मरना सबको है पर सद्गति बिरलों की ही होती है। (अपमानजनक मृत्यु-पृ0 76)।
  • संसार के बड़े-बड़े कार्य प्रायः हृदय कराता है। संसार रूपी कविता का स्त्रोत मस्तिष्क नहीं हृदय है। (‘अपमानजनक मृत्यु’-पृ0 79)।
  • राजनीतिक जीवन का तत्त्व है स्वातंत्र्य युद्ध में मोर्चा लेना, मनुष्यत्व का सार है दुःखी और पीड़ितों की निष्काम सेवा करना और वीरता तथा साहस की कसौटी है औसान रखते हुए आतंकमयी परिस्थिति का मुकाबिला करना (‘यमदूत से साक्षात्’-पृ0 103)।
  • जो अपनी सेवा की डींग हाँकते हैं और मरने तथा विरोध करने से हिचकिचाते हैं वे हैं कायर और ढोंगी। (‘यमदूत से साक्षात्’-पृ0 104)।
  • जीवन प्रगतिशील होना चाहिए और प्रगतिशीलता के अर्थ होने चाहिए आध्यात्मिक और मानसिक क्षितिज को बढ़ाते रहना। (‘जंगल का डाकू’-पृ0 139)।
  • अधिकांश लोग जीवन की कुछ समस्याओं को समझने में उदारता दिखाते हैं और किन्हीं गुत्थियों के विषय में वे कट्टरपंथी हो जाते हैं। (‘जंगल का डाकू’-प0 139)।
  • भौतिक-विज्ञान पर समाज की नींव रखने वाले आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों को प्रतिक्रियावादी कहते हैं और स्वयं किसी सत्य को न समझने की उनकी प्रवृत्ति कठमुल्लेपन में आती है। (‘जंगल का डाकू’-पृ0 139)।
  • कठमुल्लों के लिए असंप्रज्ञात-समाधि ठीक वैसे ही है जैसे नासमझ सवर्ण हिन्दुओं के लिए हरिजनों का मन्दिर-प्रवेश। (‘जंगल का डाकू’-पृ0 139)।
  • कठमुल्लापन-आप उसे कट्टरता, रूढ़िवाद, प्रतिक्रियावाद कह सकते हैं-मन की वह अवस्था है, जब मनुष्य यह समझने लगता है कि संसार की तीन-चौथाई अक्ल उसमें है और शेष एक-चौथाई संसार में बँटी है। (‘जंगल का डाकू’-पृ0 140)।
  • योगियों और पागलों को छोड़कर कितने हैं, जो रसना के वशीभूत न हो। (‘कालेकारनामें-पृ0 153)।
  • वेदान्त का प्रथम सूत्र है-‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ और संसार के अनेक जीवों का जीवन सूत्र है-‘अथातो युद्ध जिज्ञासा’। साम्राज्यवादी प्रवृत्ति, युद्ध-जिज्ञासा-रूपी शराब पर ही जोर मारती है। ……साम्राज्यवाद तो इस दुपाये-मनुष्य की ही करतूत है, दूषित पूँजीवाद की सन्तान है। (‘रोमांचकारी कुश्ती’-पृ0 168)।
  • आज केवल अपने लिए संग्रह की भावना और अपनी विभूति को दूसरो में बाँटने के अभावजन्य दोष, जो दूषित पूँजीवाद के दुपरिणाम हैं-जीवन के अनेक पहलुओ में फैल गए हैं, फलस्वरूप एक ओर विलासिता की वैतरणी वह रही है, तो दूसरी ओर दारूण-दरिद्रता की प्रचंड ज्वाला मानव-पुतलों को जला रही है। (‘दुर्घटना-पृ0 179)।
  • दूषित पूँजीवाद के दो यमो ने विलासिता और चोर दरिद्रता ने-त्याग, सेवाभाव और सिद्धान्त के लिए मर-मिटने की आकांक्षा को ढँक लिया है। (‘दुर्घटना’-पृ0 180)।
  • सुख, विषय-वासना में न होकर मन की एक अवस्था का नाम है और वह धन-सम्पदा पर आधारित नहीं है। (‘कड़क धाँय, करि धड़ाम’-पृ0 201)।

उपर्युक्त उद्धरणों से शर्माजी के बहुआयामी व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है तथा उनके विभिन्न क्षेत्रों केक विचारों का संकेत भी मिलता है। शर्माजी बहुमुखी-प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी थे। मनोविज्ञान, राजनीति, जीवविज्ञान, पत्रकारिता-फोटोग्राफी, वनस्पति विज्ञान, कृषि शास्त्र, संगीत तथा ग्रामीण-विकास के क्षेत्रों में उनका असीमित ज्ञान था। वे उत्तर-प्रदेश के एग्रीकल्चरल बोर्ड, होर्टीकल्चरल बोर्ड, ऐनीमल हसवेंड्री बोर्ड तथा आगरा डेवेलपमेंट बोर्ड एवं वृक्षारोपण बोर्ड के अध्यक्ष थे।

स्वतन्त्रता के बाद, इन समितियों के अध्यक्ष के रूप में, उनकी कार्य-कुशलता की प्रशंसा पं0 गोविन्द वल्लभ पन्त तथा श्री रफी अहमद किदवई ने की थी।

जीव-विज्ञान तथा वनस्पति-विज्ञान में तो उनकी गहरी पैठ थी। किसी भी पक्षी की बोली सुनकर वे तुरन्त उसके बोल-चाल के अंग्रेजी के तथा लैटिन के नाम बता देते थे और उस पक्षी (नर और मादा दोनों) के रंग-रूप, उसके अंडों का स्वरूप तथा अंडे देने की ऋतु का वर्णन कर देते थे।

किसी भी भावुक कवि का प्रकृति के साथ इतना भावात्मक सम्बन्ध एवं संसर्ग न रहा होगा जितना शर्माजी का था। ‘जंगल की दुलहिन’ नामक लेख में उन्होंने कहा हैः-

‘घरों और मार्गों से दूर, वन के बीच खिले, सौरभमय सुमनों का आनन्द थोड़े ही व्यक्ति लेते हैं। उँगलियों पर गिने जाने वाले प्रकृति-प्रेमियों की ही वहाँ तक पहुँच होती है। ऐसे लोग ही उस दिव्य-सुरा-रूपी गन्ध का पान भले ही कर लें नहीं तो कमनीय-फूल यूँ ही मुरझा जाते हैं। हाँ, गन्धहीन दिखावटी पुष्पों के सौंदर्य पर कवियों की कोमल-सी कल्पनाएँ जरूर जौहर दिखाया करती हैं।

एकान्तवासी पौधों पर खिले सुमनों की सुरभि का कोई मजा नहीं लेता है, उन पर कोई विरला ही लिखता है, उसी प्रकार सीधे -सादे देहातियों के शौर्य, अद्भुत प्रेम और त्याग-सम्बन्धी बातों का लोगों को पता तक नहीं चलता।’

शिकार-जीवन और प्रकृति प्रेम के लिए वन्य-पशुओं के अध्ययन की आवश्यकता के विषय में शर्माजी ने लिखा हैः-

‘शिकार-जीवन और प्रकृति-प्रेम के लिए वन्य-पशुओं के अध्ययन तथा उनकी विविध प्रक्रियाओं के गूढ़तम चिन्तन की आवश्यकता है। शिकार खेलने में जब उत्तेजना चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब शिकारी, शिकार के पीछे, समाधिस्थ सा तन्मय होकर, हाथ में राइफल लिए, पैरों में बिजली सी भरे, सगे-सम्बन्धियों से परित्यक्त साहस और सजीवता की साकार मूर्ति बन कर चलता है। उत्तेजना और आतुरता का गुरूत्व तब और बढ़ जाता है, जब कोई शिकारी नये प्रकार के शिकार पर पहली बार जाता है।’

स्वतन्त्रता से पूर्व अंग्रेजी सरकार के जमाने में बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर और देसी रियासतों के राजे-महाराजे, सर्वप्रथम अपनी सुरक्षा का सम्पूर्ण प्रबन्ध करके, अनेक सेवकों की सहायता से असंख्य पशु-पक्षियों का वध करके ‘रिकॉर्ड’ बनाने में गौरव का अनुभव करते थे। शर्माजी इस प्रकार की शिकार से घृणा करते थे, वे बिना किसी कि सहायता के स्वयं अकेले ही हिंस्त्र पशुओं का शिकार करने जाते थे। इस विषय में, बूचड़ (कसाई) के समान पशु-हत्या करने वालों के विषय में उनका मत थाः-

‘बहुत से आदमी हजारों और लाखों रूपये केवल इसी बात के लिए फूँकते हैं कि उनकी राइफल से बूचड़ का काम हो जाय, उनकी गोली से अधिकतम जीव-जन्तुओं का वध हो जाए, चाहे शिकार की उत्तेजना,परिश्रम और सैनिक-शक्ति का सुख और दुःख कोई और भोगे। इन पंक्तियों का लेखक ऐसे शिकारियों के इस प्रकार के जघन्य कृत्य को निन्दनीय समझता है क्योंकि वह वर्तमान गुलामी-व्यवस्था तथा दूषित पूॅजीवाद का दुष्परिणाम है।’

शर्माजी की ‘शिकार’ पुस्तक में जीव -जन्तुओं की प्रवृत्ति, प्रकृति-चित्रण तथा सरल पहाड़ी लोगों के जवीन का चित्रण हैं। ‘प्राणों का सौदा में शर्माजी के जवीन-दर्शन एवं उनके अन्तस तथा ब्रह्म रूप के दर्शन होते हैं। ‘हमारी गायें’ तथा ‘जंगल के जीव’ में पशु-जीवन के वैविध्य का रोचक एवं वैज्ञानिक चित्रण हैं। उन्होंने अंग्रेजी सरकार के जमाने में ‘झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई’ नामक पुस्तक में, सबसे पहले, झाँसी की रानी का सच्चा जीवन-चरित्र उपस्थित किया था, जिससे क्रुद्ध होकर अंग्रेज सरकार ने उसे जब्त कर लिया था।

स्वतन्त्रता के बाद शर्माजी ने अंग्रेजी में ‘नेताजी’ नामक पुस्तक सम्पादित की थी जिसमें उन्होंने स्वयं नेताजी की विस्तृत जीवनी लिखी थी, उसमें देश के विभिन्न विद्वानों के लेख भी संग्रहीत हैं। उनकी पुस्तक ‘वे जीते कैसे हैं’में अत्यन्त मामिक रेखाचित्र तथा संस्मरण है। देहावसान से पूर्व अपनी ‘नयना सितमगर’ नामक पाण्डुलिपि शर्माजी ने बिहार के एक प्रकाशक को दी थी, जिसने न उसे प्रकाशित किया न लौटाया। शर्माजी के देहावसान के बाद ‘संस्मरण-सीकर’ नामक एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई थी जिसे आर्य बुक डिपो नई दिल्ली से प्रकाशित किया गया है।

शर्माजी के साहित्य का अति संक्षिप्त परिचय देते हएु मैंने उनके साहित्य में ‘प्राणों का सौदा’ के महत्त्व को उजागर करने का प्रयत्न किया है।’ क्योंकि मुझे उसमें आदरणीय शर्माजी के अन्तर्मन की झलक मिलती है।

-डॉ0 विमला कुमारी मुन्शी डी0लिट0
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की शोध-वैज्ञानिक ‘ब’ (रीडर)
हिन्दी विभाग, आगरा कॉलिज, आगरा