स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमारा देश जिस सैनिक का उचित सम्मान नहीं कर सका पं श्रीराम शर्मा

‘आइए, आपका परिचय अपने एक भाई और हिन्दी के सुलेखक से करा दूँ | इन्हेंआप जानते हैं |’

प्रताप सम्पादक स्वर्गीय गणेश शंकर जी विद्यार्थी ने एक टोपीधारी और बन्दूक लिये हुए सज्जन की ओर इशारा करते हुए पूछा | उस वक्त उनकी बातचीत मगर के शिकार के बारे में चल रही थी |  मैंने कहा ‘मेरा परिचय तो इनसे है नहीं’ गणेश जी ने उनका नाम बतलाया ‘श्रीराम शर्मा’ | मैंने शिष्टाचार वश सिर्फ इतना ही कहा, ‘आपके दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई’ और अपने काम में लग गया | मैंने समझा कि ये यूरोपीयन प्रवृत्ति के कोई हिन्दुस्तानी साहब हैं और इनकी तथा हमारी मनोवृत्ति में एक ऐसी खाई होगी, जिसे लांघ कर गम्भीर परिचय प्राप्त करना सम्भव नहीं, और यदि सम्भव भी हो तो  उस से लाभ क्या शिकार खेलना तो रहा दूर मैंने तब तक बन्दूक का स्पर्श न किया था | तब मैं प्रत्येक शिकारी को हृदयहीन समझता था |

मेरी उपेक्षा भाव को स्वाभिमानी श्रीराम जी ताड़ गये और एक हलकी सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर दीख पड़ी, जो शायद व्यंग्यात्मक थी । यह लगभग पैंतालीस वर्ष पहले की बात है । श्रीराम जी उन दिनों भी बहुत अच्छा लिख लेते थे, पर उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से लिखना पड़ता था और प्रताप परिवार के तो वे खास आदमी थे । श्रीराम जी के स्वाभिमान को शायद कुछ धक्का लगा और मेरी उस उपेक्षा का दुष्परिणाम यह हुआ की तीन वर्ष तक बहुत निकट, सात-आठ मील के फासले पर रहते हुए, भी हम लोग नहीं मिल सके और जब मैं पं. झावरमल जी के साथ उनके ग्राम पर गया, तब भी उन्होंने कोई विशेष बातचीत नहीं की ।

कद मझोला, शरीर सुगठित, चेहरे पर मरदानगी, आँखों में लालिमा, बातचीत में जनपदीय शब्दों का प्रयोग, चाल में दृढ़ता और स्वाभाव में अक्खड़पन, श्रीरामजी के इस रूप में पौरुषमय अदा थी, निराला आकर्षण था जो उनके व्यक्तित्व को विशेषता प्रदान करता था ।

पर जो भी व्यक्ति श्रीराम जी को निकट से नहीं जानते थे, वे उनके विषय में मेरी तरह अनेक भ्रमात्मक धारणायें बना लेते थे । पिछले चालीस वर्षों में मुझे श्रीराम जी के सम्पर्क में आने के पचासों ही अवसर मिले थे और मैं बिना किसी संकोच कह सकता हूँ की वे अत्यन्त कोमल ह्रदय के व्यक्ति थे और उनमेें कई ऐसे गुण पाये जाते थे जो अब दुर्लभ हो रहे हैं ।

महाकवि अकबर ने कहा था-

“मगर एक इल्तमास इन

नौजवानों से मैं करता हूँ ।

खुदा के वास्ते अपने

बुजुर्गों का अदब सीखें ।”

श्रीराम जी इस गये-गुजरे जमाने में भी ‘बुजुर्गों’ का अदब करते थे । हिन्दी जगत में उनकी अनन्य श्रद्धा के पात्र मुख्यतया तीन व्यक्ति थे- आचार्य द्विवेदी जी, पघसिंह जी, गणेश जी और इस त्रिमूर्ति के प्रति उनकी श्रद्धा भावना इतनी प्रबल रही थी कि उस त्रिमूर्ति का प्रभाव उनके चरित्र पर ही चित्रित हो गया था ।  गीता में भगवान् ने ठीक ही कहा है, ‘यो यत् श्रद्धः स एव सः’ अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा वैसे ही उसका स्वरूप बन जाता है । वे द्विवेदी जी की तरह देहाती होने में अपना गौरव मानते थे ।

दरअसल देहाती शब्द द्विवेदी जी तथा शर्मा जी के सम्पर्क से अपना दोष खो बैठा है वे पघसिंह जी की तरह सहृदय थे और गणेश जी की तरह उन्हें शहादत नहीं मिली तो इस में उनका कोई अपराध नहीं । १६४२ के आन्दोलन में यह गौरव उन्हें कभी भी प्राप्त हो सकता था ।

इनके सिवाय एक दूसरी त्रिमूर्ति भी थी, जिसके प्रति शर्मा जी अत्यन्त श्रद्धालु थे महात्मा जी, रामानन्द बाबू और दीनबन्धु ऐन्ड्रज और श्रीराम जी की यह श्रद्धा खोखली नहीं, बिल्कुल ठोस थी ।

दीनबन्धु की अन्तिम बीमारी के दिनों में वे कलकत्ते से प्रति सप्ताह कई-कई दिन के लिए उनकी सेवा करने शान्ति निकेतन जाते थे और उनके अन्तिम दिनों में बराबर उनकी सेवा में उपस्थित होते रहे । और बड़े बाबू श्रीरामानन्द चट्टोपाध्याय को तो श्रीराम जी पितृ तुल्य ही मानते थे । कम से कम बीस वर्ष ‘विशाल भारत’ का सम्पादन उन्होंने सर्वथा निःस्वार्थ भाव से किया था । बड़े बाबू ने जिस के कारण पच्चीस हजार का घाटा सहा, उसके लिए हम लोगों का कुछ कर्तव्य तो है ही, बस इसी कर्तव्य भावना ने शर्मा जी के सहस्त्रों घन्टे व्यय करा दिये थे और सो भी ऐसी परिस्थिति में जब की उन्हें अपने समय का प्रत्येक क्षण जीविका अर्जित करने के लिए लगाना चाहिए था ।  महात्मा जी के प्रति श्रीराम जी की जो श्रद्धा थी वह उच्च तथा चरम कोटि की थी । बापू द्वारा निर्धारित कार्यक्रम के वे कायल थे और अपने समय का अधिकांश उसी की पूर्ति में लगाते रहते थे ।

श्रीराम शर्मा जी जन्मतः ब्राह्मण होने पर भी स्वभावतः क्षत्रिय थे और वृत्ति के अनुसार किसान । लेखन कार्य उनके लिए गौण था और कभी उन्होंने उसे प्रथम स्थान नहीं दिया । पिछले वर्षों में तो मांस जीवियों की उथली अनादर्शवादिता  तथा छिछली व्यावसायिकता से वे काफी उद्विग्न हो उठे थे । जहाँ तक पत्रकार कला और साहित्य का प्रश्न है, श्रीराम जी भूतकाल में रहते थे और शायद ही किसी ‘प्रगतिशील’ लेखक को वे अपनी ओर आकर्षित का सके हों । प्रेम विषयक कविताओं से उन्हें चिढ़ हो गई थी । प्रेम पयोनिधि में धँसना तो रहा दूर, वे उसके किनारे भी नहीं गये थे और कई बार उन्होंने प्रेमी कवियों से बहुत ही बेजा सवाल किये थे ।

‘आपकी शादी हो गई है या नहीं, यदि नहीं तो पहले शादी कीजिये, कविता उसके बाद ।’ कोई भी स्वाभिमानी लेखक इस प्रकार का उपदेश सुनने के लिए तैयार नहीं हो सकता था । ‘क्रान्ति’ शब्द के साथ खिलवाड़ करने वालों अथवा अनैतिक उपायों का आश्रय लेने वालों से उन्हें अत्यन्त घृणा थी । श्रीराम जी का यह स्वाभाव ही थी की जिन से वे प्रेम करते थे उनसे अत्यन्त प्रेम करते थे और जिन से घृणा उनसे घोर घृणा । श्रीराम जी का सर्वोत्तम मनोहर रूप उनकी मैत्री में दीख पड़ता था । वे उन अल्प संख्यक व्यक्तियों में थे जो अपने मित्रों के लिए अधिक से अधिक आत्म त्याग कर सकते थे । आत्म विज्ञापन से वे कोसों दूर थे । उनकी पर दुःखकातरता और क्रियात्मक सहानुभूति के बीसियांँ ही दृष्टान्त दिये जा सकते हैं । हाँ, दूनकी हाँकने वाले दम्भियों से बड़ी चिढ़ थी । कलकत्ते में एक बार वे हमारे यहाँ ठहरे । उन दिनों एम.एन. राय के अनुयायी युवकों की मीटिंग अक्सर हमारे घर पर ही होती थी । श्रीराम जी ने एकाध बार उनके वाद विवादों को सुना और फिर कहा- क्या फालतू छोकरे आपके यहाँ इकट्ठे होते हैं । इनमें से एक भी क्रान्ति का अर्थ नहीं समझता और ये घंटों ‘क्रान्ति’ ‘क्रान्ति’ बका करते हैं । अपने सम्मान्य अतिथियों के विषय में इस प्रकार की कटु आलोचना सुनने के लिए हम बिल्कुल तैयार न थे । हमने शर्माजी से बहस भी की । तब उन्होंने कहा, चौबेजी, कभी हम असली क्रान्तिकारी से आप का परिचय करायेंगे और उन्होनें अपने वचन का पालन भी किया । ‘आसामी बाबू’ नामक क्रान्तिकारी को हमारे यहाँ भेज दिया, जो समस्त उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के नेता थे ।

शर्मा जी सस्ती भावुकता के विरोधी थे । कोई भी किसान जिसे अन्न के दानों के लिए पृथ्वी तथा प्रकृति से निरन्तर संघर्ष करना पड़ा हो और ‘उन से भी भयंकर सरकारी मुलाजिमों और जमींदारों से अपने ह्रदय में निरर्थक कोमलता को आश्रय नहीं दे सकता । उन्होंने अपने यहाँ टमाटर, पपीता, मटर इत्यादि की खेती की थी । चकोतरा इत्यादि फल भी लगाये थे । दुर्भाग्यवश वहाँ कुछ बन्दर पहुँच गये । श्रीराम जी ने उन्हें अपनी बन्दूक का निशाना बना कर परमधाम भेज दिया । पैंतीस वर्ष पहले एक बार उनके साथ उनके ग्राम में टहल रहा था । पीपल के एक ऊँचे पेड़ को बतलाते हुए आप बोले ‘कुछ दिन पहले यहाँ एक ज्ञान गुन सागर’ आ गए थे और वे इस पीपल के सबसे ऊँचे भाग पर जा विराजे । मैं उन दिनों टाइफाइड से बहुत कमजोर हो गया था, फिर भी धीरे-धीरे यहाँ आया, निशान लिया और वे महाशय टपक पड़े । खेत में उन्हें गाड़ दिया । बहुत अच्छी खाद बन गयी ।’

मेरे मुँह से निकल गया ‘बड़े हिंसक हैं आप ! श्रीराम जी बोले ‘किसानों के लिए इस प्रकार की हिंसा क्षम्य ही नहीं, अनिवार्य भी है । या तो फिर हमी लोग पपीते और टमाटर खा ले या फिर बन्दर ! कौन खाये आप ही फैसला कीजिये’ मैं इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सका । सन् १६४७ में जब ‘हरिजन’ में महात्माजी ने भी बन्दरों के मारे जाने का समर्थन किया, तब मुझे शर्मा जी का वह सवाल याद आ गया ! कुछ वर्ष पहले आपसे एक महानुभाव ने कहा, ‘हमारे आम तो सबके सब बन्दर खा जाते हैं । क्या किया जाये ‘श्रीराम जी ने कहा, ‘आमों की रक्षा हो सकती है । उपाय हम कर देंगे । पचास फीसदी आम हमारे ।’ वह महाशय राजी हो गये । रामजी ने जो उपाय किया, उसे बतलाने की जरूरत नहीं ! मालूम नहीं कि उन महाशय ने अपनी ओर से पूर्ति का पालन किया या नहीं ! जब श्रीरामजी अपने ग्राम जाते थे तो कितने ही किसान कृषि विनाशक जन्तुओं की अन्येष्टि करने के लिए उनसे आग्रह करते थे । अभी उस दिन उन्होंने कहा, ‘ज्यादा वक्त तो हमारे पास था नहीं, फिर भी तीन नील गायें धुनक दी ।’ नील गाय जो वस्तुतः गाय नहीं होती खेतों का बेहद नुकसान करती हैं और स्वर्गीय महावीर प्रसाद द्विवेदी भी उनके विनाश के घोर पक्षपाती थे । द्विवेदी जी, शर्मा जी की व्यावहारिक किसान बुद्धि से बहुत प्रसन्न हुए थे । अभी कुछ दिन पूर्व रेल से चोरी करने वाले कुछ भ्रष्टाचारियों  की खासी  मरम्मत आपके ग्राम के निकट हो गई । इससे प्रतीत होता है कि श्रीरामजी के गाँव वालों ने उनसे कुछ सीख लिया था ।

कुछ वर्ष पहले एक महानुभाव ने हमें एक मनोरंजक घटना सुनाई थी । हमने अपने गाँव के लिए इक्का किया ही था की इतने में दरोगाजी के सिपाही ने इक्के वाले को डाँटते हुए कहा- ‘कहाँ जाता है चलबे ! दरोगाजी ने बुलाया है । इक्के वाला होशियार था । प्रत्युत्पन्नमति था । तुरन्त बोला ‘मुझे चलने में कोई ऐतराज नहीं, पर पण्डित जी के गाँव किरथरे जा रहा हूँ ।’ सिपाही झेंप कर बोला ‘तो जा, रहने दे ।’ इक्केवाला अपनी सूझ के कारण बेगार से बच गया ! इस प्रकार शर्मा जी के दृढ़प व्यक्तित्व ने न जाने कितने गाँव वालों को सरकारी अनाचारों से बचाया था ।

पशु-पक्षी, वन-पर्वत, खेत और खलिहान, चन्दा चमार और गोविन्दा अहीर तथा पीताम्बर धोबी, इन सबके साथ श्रीरामजी की गहरी दोस्ती थी और इन्हीं के द्वारा उनकी भाषा शैली का निर्माण हुआ था । उन्होंने अपने जीवन से शिक्षा पाई थी और वही वास्तविक शिक्षा थी, और अनेक बार उन्होंने अपने खून से लिखा था । इसी कारण उनकी लेखन शैली में सजीवता थी । स्वर्गीय पण्डित पदमसिंह जी शर्मा ने श्रीराम जी के लेखों पर मुग्ध हो कर लिखा था-

‘श्रीराम शर्मा प्रसिद्ध और सिद्ध अचूक निशाना लगाने वाले शिकारी हैं, आपके लेखों का निशाना भी सीधा पाठकों के ह्रदय पर जा बैठता है, पढ़ने वाला लोट-पोट हो जाता है । आप लेखों में शिकार वध्य-पशु और शिकारी की चित्तवृत्ति का ऐसा जीता जगता चित्र खींचते हैं की देख कर सहृदय पाठक आश्चर्य चकित रह जाता है, लेखक की कलम चूमने को जी चाहता है । आपकी वर्णन शैली बड़ी सजीव भाव विश्लेषण मनोविज्ञान सम्मत और भाषा विषय के अनुरूप बड़ी सुघड़ होती है ।’

पर सब से बढ़िया प्रमाण-पत्र श्रीरामजी को, स्व. आचार्य द्विवेदी जी से मिला था, जब हम लोगों ने साथ-साथ दौलत की तीर्थयात्रा की थी । द्विवेदी जी ने एक दिन हमसे कहा, ‘चौबेजी, तुम भाषा लिखना श्रीरामजी से सीख लो ।  ‘श्रीरामजी इस बात से बहुत सकुचा गए और फिर हम से बोले, ‘चौबेजी ! कहीं इस बात को छपा न देना ।’ हिंदी के युग निर्माता द्विवेदी जी तथा अद्वितीय शैलीकार पदमसिंह जी ने इन कथनों के बाद श्रीराम जी की भाषा-शैली के विषय में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती ।  भाई श्रीराम जी के इतने अधिक संस्मरण मेरे दिमाग में घूम रहे हैं की उनको लिपिबद्ध करने के लिए काफी समय चाहिये । उनके सैकड़ों ही पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं जिनसे उनके अद्भुत चरित्र पर प्रकाश पड़ता है ।

हिंदी साहित्य के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात हुई कि उनके जीवन के अन्तिम वर्ष कठोर संघर्ष में बीते । शासनारूढ पार्टी ने उनके त्याग तथा बलिदान का कुछ भी ख्याल नहीं किया और उनकी प्रबन्ध-शक्ति तथा सूझ-बूझ से कुछ भी लाभ नहीं उठाया । कितने ही वर्षों से वे कहते आ रहे थे कि यदि कृषि की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया तो यह देश तबाह हो जायेगा । उनकी भविष्यवाणी आज सत्य सिद्ध हो रही है ।

गार्हस्थिक चिंताओं तथा देवी विपत्तियों ने उन्हें झकझोर दिया था । पिछले कई वर्षों से उनके जीवन में कटुता का प्रवेश हो गया था और प्रायः उद्विग्न रहते थे । कोई साधारण व्यक्ति तो उन परिस्थितियों  में जीवित भी नहीं रह सकता था । सबसे जबरदस्त धक्का उनके ह्रदय को तब लगा जबकि केन्द्रीय सरकार ने उनके फार्म के निकट ही कट्टीखाना खुलवाने का निश्चय किया । इस कल्पना ने, कि उनका बना बनाया नवजीवन फार्म अब नष्ट हो जायेगा, उसको हताश कर दिया, फिर भी वे अन्त तक लड़ते ही रहे ।

साहित्य क्षेत्र तथा कृषि क्षेत्र दोनों में समानरूप से सफलता प्राप्त करने वाले लेखक विदेशों में भले ही विघमान हों, इस देश में- खास तौर से हिन्दी जगत में तो बहुत ही कम होंगे । राजनैतिक क्षेत्र में भी उनकी सेवाएँ महत्वपूर्ण थी ।

श्रीराम जी जनपद जन थे- ब्रजभूमि के अनन्य भक्त और ब्रजभूमि के निवासियों का कर्तव्य है कि वे उनकी कीर्ति रक्षा के लिए भरपूर प्रयत्न करें ।  यदि उनके निवासियों का कर्तव्य है कि वे उनकी कीर्ति रक्षा के लिए भरपूर प्रयत्न करें । यदि उनके संग्रहालय का पर्चा-पर्चा सुरक्षित किया जा सके तो आगे चलकर उनकी स्मृति में एक ग्रन्थ निकाला जा सकता है । श्रीराम जी का जीवन संघर्षों तथा बलिदानों की गाथा है । १६४२ के आन्दोलन में उनका सम्पूर्ण कुटुम्ब जेल में रहा और दो बच्चों की मृत्यु भी हो गई; एक तीन वर्ष का दूसरा दस वर्ष का ।  स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हमारा देश उस सैनिक का उचित सम्मान नहीं कर सका । पर क्या साहित्य जगत भी उन्हें भूल जाएगा ।

श्री बनारसीदास चतुर्वेदी