पं0 श्रीराम शर्मा का ‘शिकार साहित्य’

लोक जीवन की यथार्थ झंकृति

स्मृति का दंश बहुत मारक होता है। छठें दशक की बात है। सोलह वर्ष की बारी उमर में घर छोड़ना पड़ा। प्यारा गाँव छूटा। छूटा वह उल्लास, आनन्द, मनोरंजन, खेल-कूद और छूटे वे साथी, जो हुड़दंग में जान की बाजी तक लगा देते थे। छूटी वे अमराइयाँ जिनकी डार-डार, पात-पात तक मेरे वानर स्वभाव की साक्षी थीं। पेट की ज्वाला, परिवार की भूख, सब कुछ तो मुझे सुबह चार बजे से रात आठ बजे तक दर-दर अब परिवार तथा अपने पेट की चिन्ता न थी। पर मन निरंतर कचोटता रहता। लालसा रूपी जिव्हा लपलपाती रहती कुछ पढ़ने के लिए। चिन्ता थी भविष्य की। जो प्राप्त था, वह मेरे अपने जीवन का लक्ष्य तो था नहीं। समस्याओं से जूझना, उसमें से रास्ता खोजना, वर्तमान में असंतुष्टि यही तो मेरी प्रकृति और प्रवृत्ति थी और खोज थी- पढ़ाई के रास्ते की। साहसी तो मैं बचपन से ही था। उस समय तक साहित्य की गहरी पहचान तो थी नहीं। पर इतना जरूर लगता कि जो पाठ्य सामग्री मन को गहरे तक झंझोड़ दे, जिसमें अपनी पीड़ा और वेदना मुखर दिखे, वह साहित्य है। समाचार पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक और साहसिक उपन्यास, कहानियाँ पढ़ने को मिल जाती। मन भी इनमें रमता।

निश्चय ही, पत्र पत्रिकाओं का संरक्षण पाकर आधुनिक हिन्दी साहित्य की अनेक विधाएँ अंकुरित हो उठीं। आज वे अपने विकास के चरम पर है। उन्हीं में एक ‘शिकार साहित्य’। इसमें यथार्थ तो होता ही है, कल्पना की भाव-प्रवणता भी अपेक्षित होती है। कल्पना के ही सहारे तो रचनाकार की संवेदना रूपायित होती है और इसका शिल्प होता है-निराला। सबसे अलग-थलग। यही कारण है कि इसके रचनाकार बिरले ही मिलते हैं। आज तो शिकार साहित्य, साहित्य क्षितिज से गायब है। इसका कारण है-नगरीकरण की वृद्धि और अलभ्य जीव-जन्तुओं की आज रक्षा-भावना।

अन्य आधुनिक विधाओं की भाँति शिकार साहित्य भी पाश्चात्य या अन्य भारतीय वाड्मय से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। रवीन्द्रनाथ टैगोर का ‘सुरित पाषाण’ हिन्दी में खण्डहरों, प्रतिमाओं, पर्यटन, यात्रा तथा शिकार साहित्य के सृजन का कारक बना। चन्द्रकांता की भाँति इन रचनाओं ने हिन्दी के पाठक ही नहीं बनाए अपितु साहित्य की भी श्रीवृद्धि की।
शिकार साहित्य को, हिन्दी साहित्येतिहास लेखकों ने, संस्मरण रेखाचित्र के रूप में विवेचित किया। पर, मेरी अपनी दृष्टि में शिकार-साहित्य आधुनिक हिन्दी साहित्य की एक स्वतन्त्र विधा है और इसका विवेचन-विश्लेषण भी अलग से होना चाहिए।

छायावाद का युग हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास का स्वर्ण युग रहा है। छायावाद-युग मे जन्मे पं0 श्रीराम शर्मा छायावादी संवेदनाओं से भी आक्रांत है और आक्रांत है-इस युग की जातीय चेतना से भी। उनमें अपनी संस्कृति के प्रति अनुराग है, अपने धर्म के प्रति आस्था है और गाँधी की भाँति पराधीनता से मुक्ति की छटपटाहट और कुछ कर गुजरने की भावना है। उनमें यदि प्रेमचन्द की सी यथार्थ-चित्रण की क्षमता, शोषितों पीड़ितों की स्थिति के प्रति गहरी संवेदना है तो प्रसाद की सी रूपांकन क्षमता और राष्ट्रीयता का उद्घोष है और ह निराला जैसा आक्रोश छटपटाहट। आज बन्धुवर डाॅ0 लक्ष्मी नारायण भारद्वाज की अनुकम्पा स्वरूप शर्मा जी की पुस्तक शिकार मेरे सामने है और! मेरा वह बचपन फिर जागा। शर्मा जी के शब्द ही मेरे जीवन का यथार्थ है-‘बाल्यकाल के उस माधुर्य की पुनः प्राप्ति असम्भव है।…..शीघ्र ही आयु ढलने पर तू भी हमारी भाँति बाल्यकाल के लिए विव्हल होकर आँसू बहाएगा। अच्छा हो तू अभी से चेते।’ । मैं नहीं चेता, या नियति के थपेड़ों ने नहीं चेतने दिया, जो कुछ हो आज मैं विव्हल हूँ अपना बचपन पाने के लिए शायद मैं ही नहीं, हर प्रौढ़ विव्हल-विकल है। किन्तु क्या किसी को पुनः बचपन मिला है?

रचना की निर्मित का आधार एक ऐसी संवेदना होती है जो रचनाकार के अन्तस में, एक तिरछे व्हें जु अड़े’ जैसी, हर क्षण करकती रहती है, बिना अभिव्यक्ति के मुक्ति नहीं। शिकार साहित्य के सर्जक की संवेदना और खासकर पं0 श्रीराम शर्मा की संवेदना का धरातल अत्यन्त ठोस है। उसमें जीवन का यथार्थ है, कल्पना की उड़ान है। अध्ययन चिन्तन-मनन की गहराई है।

वस्तुतःशिकार-साहित्य में व्यक्ति व्यंजक निबन्धकार की भाँति रचनाकार अपने समूचे परिदृश्य को उनके अतीत के साथ रूपायित करता है। इसीलिए इसमें निबन्ध जैसी भाव-प्रवणता, कहानी-उपन्यास जैसा कथा-रस, कौतूहल इतिहास जैसा वर्णन विवरण, कविता का छंद ताल, संस्मरण रेखाचित्र जैसी वियात्मकता एक साथ होती है। इसका सौन्दर्य बोध भी सब विधाओं से अलग-थलक होता। तभी तो चरित्र और रूप निर्मित में वह अपना शानी नहीं रखता।

पं0 श्रीराम शर्मा को गाँव, प्रकृति और गाँववासियों की पीड़ा ने गहरे तक छुआ है। फलस्वरूप गरीब, पीड़ित शोषित किसानों का चित्रण उनके सौन्दर्य बोध का मानक बन गया है। वे तुर्गनेव को पढ़े हैं, गाँधी को भी देखे हैं, प्रेमचन्द के कृतित्व से भी उनका साक्षात हुआ होगा, पर वे स्वयं किसान रहे हैं, उस पीड़ा सामाजिक-व्यवस्था के वे स्वयं भुक्तभोगी रहे हैं। अस्तु किसान की व्यथा-कथा स्वयं उनकी व्यथा-कथा है जैसे घनानन्द की विरह पीड़ा। तभी तो घनानन्द की भाँति स्वयमेव उनके अन्तस् से शब्द-रूप में फट फड़ता है-किसान का स्वरूप। ‘हिन्दुस्तानी किसान मौत और विपत्ति को अटूट साहस से सहते हैं। मौत, रोग और अत्याचार उनके लिए साधारण सी बात हो गई है।’ । एक बूढ़े कृषक का चित्र उनके अन्तस् की गहरी पीड़ा का परिचायक है-…..और उनकी बगल में एक हाड़ का कंकाल बूढ़ा खड़ा है। उसकी मुखाकृति, उसकी अन्तर्वेदना की द्योतक थी। कष्ट विपत्ति और समध के उलट-फेर ने उसकी गति, तूफान में फंसे जहाज सी कर दी थी।……पर उस बूढ़े की आँखे में एक खिंचाव था, जो हृततै भी के तारों को अपनी ओर खींच रहा था। वह खिंचाव प्रेम का आकर्षण-सा न था, वरन कंपायमान भावी आशंका से भयभीत बलि-पशु की आँखों से निकलती हुई मूक-याचना का, खिंचाव-सा था। उसकी आँखे कह रही थीं, यदि तुम हृदयहीन नहीं हो तो हमारी रक्षा करो।’ । उन्होंने रक्षा भी की-जब-जब अवसर मिले। क्योंकि उनके जीवन का आदर्श था-‘निरीह किसानों की सेवा करना’ पेमचन्द की भाँति इनके यहाँ केवल उसका वर्णन भर नहीं। तभी तो वे टिकट-चेकर के हाथ से पिटते किसान को देखकर आक्रोश से ीार उठते हैं-‘यदि यह (किसान) मारने पर आ जाय, तो तुम्हारा कोफ्ता बना दे। मारते क्यों हो?’ । दलितों की इस दशा से उनके मन में वेदना ही नहीं है, वह अन्य रचनाकारों से अलग संघर्ष के लिए, सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए दलितों-पीड़ितों को, सुधारकों और हितैषियों को विरोध के लिए प्रेरित करते हैं। गाँव के जमींदार के भाई से आवश्यक रूप से जूते से पिटे किसान से वे कहते हैं-‘मुझे बड़ा दुख है। परमात्मा पर विश्वास रक्खो और हिम्मत बाँधों तभी काम चलेगा। शेर और बकरी की दोस्ती नहीं हो सकती। सो तुम बकरी बन कर न रहो।’। इतना ही नहीं अवसर मिलने पर वे स्वयं शोषक से संघर्ष के लिए उतारू हो जाते हैं। केवल इसीलिए न कि शोषित, दलित को वे समाज में बराबरी का दर्जा देने, उनके उत्थान के लिए उनके मन में टौस है। तभी तो वे शोषक के प्रतिनिधि लाला को खरी-खोटी सुनाते हैं-‘इस पाप को मेरे मत्थे मढ़ने वाले वे लोग नहीं हो सकते, जो रात-दिन ब्याज लेने की चिंता में लगे रहते हैं।……यह बताओ कि हिंरन को मारने वाला अधिक पापी या आदमी को मारने वाला अधिक पापी।……बस तो लाला आप आदमी का शिकार खेलते हैं।’

वेद, पुराण, रामायण, महाभारत से लेकर समस्त भारतीय वाड्मय और विदेशी साहित्य अध्ययन ने उनकी संवेदना को समृद्ध किया। फलस्वरूप उनका मन कही मनु के संदर्भो में भटक जाता है। और! कहीं राम, सीता, कहीं गांधारी, कहीं डान क्युसोटे, कहीं अभिमन्यु और कहीं दारा के संघर्ष तथा पीड़ा से वे अपने शिकार-साहित्य की संवेदना को तीखा बनाते हैं। अपने युग पुरूष गाँधी को वे विस्मृत नहीं कर पाते और मिलंगना को देखते ही उन्हें स्वामी रामतीर्थ की त्रासदी का स्मरण हो उठता है। उसकी तेज गति, सतत् पवाहमान गति में तिरस्कार दिखाई देता है, इसलिए कि मनुष्य, प्रकृति के साहचर्य में रहकर भी उसके औदार्य को ग्रहण नहीं कर पाया-‘मिलंगना-धनुषाकार में उछलती-कूदती, अपने सहवासी शैल-शिखरों, द्रुमदलों और अलि-चुम्बित पुष्पों को अंतिम प्रणान और कदाचित् हमारा तिरस्कार करती हुई, अपने प्यारे से मिलने के लिए दौड़ी जा रही थी।’ (वही, मौत के मुख में, पृ033)।

मानवीय प्रवृत्ति के सूक्ष्मतम क्षण उनकी रचना को शक्ति-संपन्न और पाटकीय क्षमता प्रदान करते हैं। वस्तुतः ये क्षण उनकी संवेदना भूमि के नियामक है। मानवीय प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं-‘अपमान को सह जाना अथवा अपमान का उत्तर न देना या मन-मसोस कर रह जाना मनुष्य योनि को छोड़ और किसी योनि का धर्म नहीं है।’……मानवीय और पाशविक प्रवृत्ति की तुलना करते हुए वे पशु प्रवृत्ति को श्रेष्ठ सिद्ध कर जाते हैं-‘अमल के पुतले की भाँति पिट-कुटकर अथवा अपमानित होकर महीनों बाद दफा 500 में अदालत की ओर भागने की उनकी वान नहीं।’ किन्तु आजादी के प्रति आकर्षण और मानव की अपेक्षा पशु में अधिक है-‘आजादी के लिए क्यों न तड़पता।’ (वही पृ0 4-5)
केवल यथार्थ ही नहीं, जीवन के अलभ्य क्षण भी उपस्थित है इस शिकार साहित्य में। ‘विवाह और जीत का मोर भी बड़ा विकट होता है।’ (वही पृ0 10-11) और ‘आर्थिक संकट से पीड़ित व्यक्तियों के लिए दाम्पत्य-सुख एक टानिक है, जो जीवन की कुछ घड़ियाँ बढ़ा देता है।’ (वही कुफ्र टूटा, पृ0 14)।

शर्माजी एक साधक थे, तपस्वी और योगी भी। साधकों, तपस्वियों की गति नियति से भी वे परिचित थे-‘यह संसार बहुत से भले आदमियों की कदर उनके मरने के बाद करता है। सुकरात जैसों को जहर पीना पड़ा। ईसा को सूली पर लटकाया गया। दयानन्द पर पत्थर बरसाये गये, पर उनका आदर उनके मरने के उपरान्त हुआ।’ (वही, काने का अन्त, पृ0 53)। मृत्यु को वे शाश्वत मानते हैं। किन्तु आशा को वे मानव के विकास का कारक स्वीकार करते हैं-‘बाध्या स्त्री को जैसे यह आशा होने लगे कि उनकी गोद शीघ्र ही भरेगी, वैसे ही आशा में हम बैठे थे’ (वही कुफ्र टूटा, पृ0 21)। इतना ही नहीं, आशा को वे जीवन का आनन्द मानते हैं-‘आशा के बिना जीवन का कुछ आनन्द ही नहीं।’ (वही, स्मृति, पृ09)।
काल की गति को उन्होंने निकट से पहचाना-‘अनादि काल से मानव लीला का मूक दृष्टा, समय, अपनी अनन्त की पोथी में घन्टा, घड़ी, दिन और मास लिखता का मूक दृष्टा, समय, अपनी अनन्त की पोथी में घन्टा, घड़ी, दिन और मास लिखता जाता था।….’नवीन वधू पहले लम्बी लाज काढ़कर निकलती है। अपने पति तक से झेंपती है, पर उस अमर बड़ दर्शक समय के आवर्त में पड़कर घूँघट के पट खोल देती है।’ (वही, कुफ्र टूट, पृ014-15)।

मानवीय जीवन की कुछ अनिवार्य नियति हैं। इनमें चिन्ता और विपत्तियाँ प्रमुख हैं। वे इन्हें जीवन-सहचरी स्वीकार करते हैं। ‘चिन्ता और विपत्तियाँ साथ छोड़ने वाली नहीं। वे चिर सहचरी हैं। तू रोता हुआ पैदा हुआ और शायद रोता हुआ ही महायात्रा करेगा।’ (वही, पैने छुरे, पृ0 97)।

शर्माजी एक अध्यापक थे, ऐसे अध्यापक जो अपने पेशे से गहरे तक जुड़े थे। अतः शिक्षा के वर्तमान स्वरूप, उसकी प्रासंगिकता, तथा उपादेयता पर निरंतर चिन्तनरत् थे। सत्य  यह है कि शिक्षा के स्वरूप से न तो वे संतुष्ट थे और, न ही उसकी उपादेयता से आशान्वित। फलस्वरूप वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के प्रति उनके मन में गहरी पीड़ा और आक्रोश है-‘डिग्री या डिप्लोमा एक प्रकार का टिकट या पासपोर्ट है, योग्यता का सूचक नहीं। वह शिक्षा-प्रणाली, जिससे पढ़ने वाले की शारीरिक, मानसिक और नैतिक उन्नति न हो-अनुचित ही नहीं, वरन् दूषित है।…उपनिषद में नचिकेता की कथा पढ़कर जिसने जीवन-मरण के मूल तत्व को न समझा और समझकर अपनी शक्तिभर उस पर अमल न किया, तो उपनिषद-पाठ से क्या लाभ? गीता पढ़कर जो मरने-मारने से डरे, वह ढोंगी है, बगुला भगत है।’ (वही, काने का अंत, पृ0 50-51)। और ! उन्हें चिन्ता है-आखिर ये विद्यार्थी अपनी रोजी कैसे पैदा करेंगे?

हिमालय से प्रवहमान नदियों का रूपांकन, साम्य हृदय पर चली हुई आरी से वे करते हैं। किन्तु बावजूद इसके हिमालय व्यथित नहीं, अपितु कत्रव्य-पथ पर अटल हैं। वह…….’भारतीय इतिहास का नाटक देखते-देखते बूढ़ा हो गया।

इतिहास मानव को भूल सुधारने का माध्यम है और वे मानते हैं कि धूतो और शैतानों से युद्ध में आततायी के विनाश में छल-प्रपंच महान शस्त्र हैं। मुगलों से भारतीय राजपूतों की पराजय का कारण राजपूतों द्वारा नैतिकता का अनुपालन था। इसीलिए वे कहते हैं-‘सत्य की रक्षा के लिए, सिद्धान्त की पुष्टि के लिए अहिंसा की खातिर और आत्मिक बल की स्थापना के लिए छल-प्रपंच का सहारा लेना पड़ता है। (वही, काने का अंत, पृ0 54)।

रूप-चित्रण में शर्माजी के अनूठे प्रयोग रचनाकार की गहरी मानवीय रामात्मकता के गवाह हैं। यमुना के गति, चाल-ढाल की एक पूर्णतया नयी कल्पना द्रष्टव्य है-‘यमुना मानो अपनी पुरानी स्मृतियों और ब्रज-विरह का स्मरण कर कुछ सोचती हुई, गुम-सुम चली जा रही थी। वायु के झोंके आकर उसे गुदगुदाते थे, आलिंगन करते थे, पर वह मानो खीझकर कहती थी-‘अरे हटों, अठखेलियाँ न करो, किसी दूसरे से उलझो।’ (वहीं, खूनी घटवारा, पृ0 58) वसतुतः यहाँ शर्मा रोमंटिक तो हुए ही हैं साथ ही उनकी नवीन-कल्पना छायावादी भाव धारा का स्मरण करा जाती हैं। बिम्बात्मक भाषा ने यमुना का रूप एक नवोढ़ा नारी की प्रतीति कराता है।

यह युग भाषा-साधना का भी युग था। पद्य की भाषा को सर्वगुण सम्पन्न तो छायावादी कवियों ने बनाया किन्तु गद्य की भाषा की अपनी आवश्यकताएँ थीं। छायावादी कवियों ने गद्य को काव्यमय बनाया। उसमें तत्सम् शब्दावली का बाहुल्य था। किन्तु जन-साधारण की अपेक्षा होती है-ऐसी भाषा की, जिसमे ंउसके लोक-जीवन के शब्द अर्थ की नयी-नयी छटा प्रस्तुत कर रहे हो। शर्मा जी को ऐसी शब्दावली से परहेज नहीं था। वे क्रान्तिकारी, शोषित की पीड़ा से आक्रांत थे। फलस्वरूप उनकी भाषा में लोक-जीवन की यथार्थ प्रस्तुति में समक्ष, शब्दों की भरमार है।गद्य की भाषा को उन्होंने व्यावहारिकता का रूप देते हुए गँवई गाँव के शब्द, भाषा तथा लोक जीवन में प्रचलित विदेशी शब्दों को यथावत् अपनाया। परिणाम स्वरूप शर्माजी की भाषा में ताजगी है, संप्रेषणीयता है और रोचकता ।लोकोक्तियों, मुहावरों कहावतों तथा सूक्तियों द्वारा उन्होंने जीवनानुभव को रूपायित किया है। ऐसे तपस्वी, समाधिस्थ की भाषा के सन्दर्भ में क्या कहना। उन्हीं के शब्द दुहराए जा सकते हैं-‘असंप्रज्ञात समाधि से भाषा के बंधन टूट जाते हैं। दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियाँ कट जाती है।’ (वही, स्मृति, पृ0 6)। फलस्वरूप उनकी भाषा में सहजता के साथ-साथ निबन्ध की सी कसावट भी उपस्थित है।

डॉ0 राजमणि शर्मा
चाणक्यपुरी, सुसुवाही, वाराणसी