लौह पुरूष पं0 श्रीराम शर्मा

मार्च 1931 की बात है। कानपुर में साम्प्रदायिकता का भयंकर ज्वालामुखी लावा उगल रहा था। अहंकार से उद्धत होकर हिन्दू-मुसलमान दोनों ने पैशाचिक पवृतियों को अपना लिया था। अधिकारीगण विद्वेष की विभाीषिका और हिंसावृत्ति को उभारने में आनन्द से फूले न समाते थे। बर्बरता उत्कर्ष की चरम सीमा तक पहुँच  चुकी थी। हुल्लड़ पसन्द गुण्डे गलियों में घूम-घूमकर वैमनस्य की ज्वाला भड़का रहे थे। मानवता संत्रस्त थी। प्रताप प्रेस में हिन्दी के स्वनामघन्य कवि पण्डित श्री बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ से एक सज्जन बैठे बातें कर रहे थे। एक दौलतमन्द व्यापारी रोता हुआ पहुँच । डर के मारे उसकी कण्ठ ध्वनि अवरूद्ध थी। धर्मान्ध उपद्रवकारियों से वह अपनी तथा अपने परिवार की प्राण-रक्षा के लिए हजारों रूपये व्यय करने को तैयार था। गणेश शंकर विद्यार्थी रोड, प्रताप प्रेस से 50 गज के फासले पर उसका मकान था। नवीन जी के साथ बैठे हुए उन पर दुखकातर सज्जन ने उस नवागन्तुक व्यक्ति के दुख का तीव्रता के साथ अनुभव किया।उन्होंने कर्तव्य-पालन की भावना से रूपये लेने या सौदे की बात को अस्वीकार करते हुए हार्दिकतापूर्वक उस व्यक्ति को आश्वासन दिया, और भरी दोनली बन्दूक को बगल में दबाये उसके निवास स्थान पर रात-भर बैठ कर उसके परिवार की रक्षा की। मजहबी दीवानी को किसी कदर इस बात का पता चला कि एक बन्दूकधारी सज्जन अपनी जान को हथेली पर रखकर उनकी जुल्म-ज्यादतियों का सामना करने को उद्यत है। स्वभावतः उन पर आतंक छा गया, और वे नर-पिशाच अपनी पैतरेबाजियों को भूल कर बंगले झांकने लगे।

जिज्ञासा जागरूक हो उठती है कि अपने प्राण को तृण के समान समझ कर दूसरे को प्राण-संकट से बचाने में हर्ष तथा सन्तोष का अनुभव करने वाले सज्जन कौन थे। वे थे शिकार-साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठ लेखक, हिन्दी के सफल पत्रकार और सर्वश्रेष्ठ शब्द-चित्रकार पण्डित श्रीराम शर्मा। आचार्य पण्डित श्रीपद्यसिंह जी शर्मा के शब्दों में ‘बन्दूक से बढ़कर जिनकी लेखनी का निशाना बैठता है, और पढ़ने वाला तड़प कर रह जाता है।’

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिलान्तर्गत किरथरा नामक ग्राम में फाल्गुन शुक्ल पक्ष, त्रयोदशी के दिन एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण-परिवार में पण्डित श्रीराम शर्मा का जन्म हुआ था। जन्म के उपरान्त एक उकाब ने आसमान से उतर कर और उन्हें अपने मजबूत पंजों से पकड़कर अपना ग्रास बनाना चाहा पर उनकी माता ने उन्हें उसकी झपट से बचा लिया। उनका बाल-जीवन ग्राम के उन्मुक्त वातावरण में ही व्यतीत हुआ था। उनके हृदय पर सबसे गहरा प्रभाव उनकी अपनी स्नेहमयी जननी की सहनशीलता, दूरदर्शिता और व्यवहार निपुणता का पड़ा था, जो 34 वर्ष की आयु में विधवा हो गयी थीं। वह प्रातः काल 3 बजे उठकर निरन्तर अपने कर्त्तव्य का पालन करती थी, और 4 बजे शर्मा जी को उठाकर उन्हें पढ़ने में प्रमाद नहीं करने का आदेश देती थी। 10 वर्ष की आयु में ही वह उन्हें रखवाली के लिए खेत पर छोड़ देती थी। शिक्षा-ग्रहण करने के लिए शर्मा जी की तपस्विनी माता ने किसी पाठशाला में प्रवेश नहीं किया था, पर व्यावहारिक दृष्टि से उनका अन्तर्ज्ञान विकसित था। एकाग्र स्थिरता से दिन-भर कार्य में लगे रहने तथा अपने दैनिक जीवन को नियंत्रित करने की प्रेरणा शर्मा जी ने उन्हीं से प्राप्त की थी।

खड़ी बोली के गद्य-साहित्य के सूत्रधार स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा परिवर्द्धित आर्य समाज के साहित्य ने भी शर्मा जी की साहित्यिक चेतना को प्रबुद्ध किया था। बचपन मे ही अंग्रेजी शासन के विरूद्ध विद्रोह की भावना उनके हृदय को आन्दोलित करने लगी थी। स्वाधीनता की यज्ञ-देवी पर सर्वार्पण कर देने वाले खुदीराम बोस के बलिदान ने प्रेरक आकर्षण के रूप में उन्हें देश-भक्ति और राष्ट्रीय आदर्शवाद का सन्देह किया था। यों शर्मा जी का जीवन प्रारम्भ से अन्त तक संघर्ष, प्रतिरोध और अर्थाभाव में ही व्यतीत हुआ। पर उन्होंने जीवन के शाश्वत मूल्यों की अवहेलना कर अर्थ-संचय की लोलुपता में अपने आपको कभी नहीं बाँधा। उनके जीवन की सबसे बड़ी पूँजी रहा-समानशील सत्यपुरूषों का सत्संग। अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी, पण्डित श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी और भारतीय पत्रकार कला के पथ-प्रदर्शक बाबू रामानन्द चट्टोपाध्याय जैसे उच्च कोटि के निर्भीक सम्पादकों ने उन्हें पत्रकार जीवन में प्रेरणा प्रदान की थी। विदेशी पत्रकारों में हेनरी डब्ल्लू-नेविन्सन के आत्म-चरित्र और प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक ब्रैल्सफोर्ड के सान्निध्य ने भी उनके ऊपर महत्व पूर्ण प्रभाव डाला था।

प्रारम्भ में शर्मा जी ने उर्दू पढ़ी, और उर्दू में ही मिडिल की परीक्षा पास की थी। उर्दू मिडिल में उनका उर्दू का ज्ञान बहुत अच्छा था। उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा में अनुवाद के लिए हिन्दी और इन्टरमीडियट में उर्दू ले रखी थी। वैसे स्वतन्त्र रूप से उन्होंने हिन्दी साहित्य का विधिवत् अध्ययन किया था। बी0ए0 की उपाधि से सम्मानित होने के उपरान्त उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए एम0ए0, एल0एल0 बी0की पढ़ाई शुरू की थी। कानून का विषय उन्हें हृदय से पसन्द था और एक सफल वकील बनने की उनमें स्वाभाविक उत्कंठा विद्यमान थी। स्वभावतः कॉलेज में नार्टन्, सी0आर0 दास और सरअली इमाम के राजनैतिक मामलों से सम्बन्धित बहस-मुबाइसे को पढ़ना उनके लिये एक आनन्द का विषय हो गया था। यों समाचार-पत्रों में कॉलेज के दूसरे वर्ष से ही उन्होंने लेख लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मर्यादा, प्रभा, अभ्युदय आदि हिन्दी के उच्च कोटि के साहित्यिक पत्रों में उन्होंने अनुवाद और स्वतन्त्र लेख लिखने का उन्हीं दिनों अभ्यास कर लिया था। पर देश व्यापी अहिंसक असहायोग आन्दोलन का सूत्र-पात्र होने पर अपने सहपाठी विख्यात के लिए कानपुर चले गये और इस प्रकार 1917 से उन्होंने लेखन-कला का पूर्ण अभ्यास का श्री गणेश किया था।

उर्दू-लेखकों में ख्वाजा हसन निजामी की लेखन-शैली का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा था। अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने सर्वप्रथम इस बात की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया था कि अच्छी हिन्दी लिखने के लिए निजामी साहब से शर्मा जी का पत्र व्यवहार भी हुआ था, और उनकी पुस्तक ‘बेगमात के आँसू’ की उन्होंने हिन्दी में ‘अश्रुपात’ के नाम से छायानुवाद किया था। ख्वाजा साहब के सभी ग्रन्थ-रत्नों का उन्होंने ध्यानपूर्वक अध्ययन यिका था। यों उर्दू-कवियों में मिर्जा गालिब, शौकतअली ‘फानी’ मौलाना हाली हजरत नजीर अकबराबादीत था अन्य कई प्रसिद्ध कवि उन्हें बहुत पसन्द थे। उर्दू कवि अकबर हुसैन इलाहाबादी का भी उनके ऊपर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था। महाकवि मिर्जा गालिब के तो वह अनन्य भक्त थे। संशय, शोक और विषाद के गहन अंधकार में मिर्जा गालिब को भावपूर्ण रचनाओं से उन्हें अत्यिाक सन्तोष और आश्वासन मिलता रहा। मिर्जा गालिब के अनेक शेर उन्हें याद थे। गालिब की बहुमूल्य रचनाओं में कौन सी रचना सबसे अधिक मूल्यवान है, इसका निर्णय करना उन्हें लिये कठिन था। कवि वर्तमान का निर्माता और भविष्य का दृष्टा होता है। उसकी वाणी के आलोक से मानव-समाज का अन्तरंग आलोकित हो उठता है। उनकी सम्पत्ति में सच्ची कविता की परिभाषा थी-व्यथित और सक्षव्य मानव-हृदय को प्रेम, शान्ति और नवजागरण का सन्देश देना और युग-मानव को कर्तव्य-पथ पर डटे रहने की प्रेरणा प्रदान करना। जो दूसरों से अप्रसन्न रहते हैं और कहा करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने अमुक काम नहीं किया उनकी मानसिक स्थिति को ध्यान में रख कर शर्मा जी ने मिर्जा गालिब की निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख किया था-

जा तबक्का ही उठ गई गालिब,
क्यों किसी का गिला करे कोई।

बातचीत के प्रसंग में शर्मा जी ने एक बार मिर्जा गालिब के निम्नलिखित शब्दों की ओर भी मेरा ध्यान आकर्षित किया था।

‘रहिये अब ऐसी जगह चलकर
जहाँ कोई न हो,
हम सखुन कोई न हो,
औं हम जुवां कोई न हो
बेदरों देवार का इक
घर बनाना चाहिये,
हमसाया कोई न हो
औ पासवां कोई न हो।
पड़िये गर बीमार तो
कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाइये तो
नोहा ख्वां कोई न हो।’

शर्मा जी ने भेंटवार्ता में मुझसे कहा था कि आधुनिक उर्दू कविता आधुनिक हिन्दी कविता की अपेक्षा श्रेष्ठ है। यह बात दूसरी है कि भावनाओं की अन्तर्व्यापिनी अनुभूति और आश्चर्यजनक काव्य-सौन्दर्य के कारण मध्यकालीन हिन्दी-कविता उत्कृष्ट कोटि की है और इसमें सन्देह नहीं कि कबीर, सूर तुलसी आदि सन्त कवियों की कवितायें हिन्दी की ही नहीं, विश्व-साहित्य की अमर देन है। उनके विचारानुसार हिन्दी वालों को उर्दू-कवियों का और उर्दू वालों को हिन्दी कवियों का अध्ययन करना चाहिये था। यों वर्तमान हिन्दी का गद्य कई दृष्टियों से उर्दू के वर्तमान गद्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है।

रेखा चित्रण के क्षेत्र में अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ शब्द चित्रकार ए0जी0 गार्डनर की लेखनी से प्रसूत रेखा-चित्र विायक रोचक कृतियों ने शर्मा जी को बहुत अधिक प्रभावित किया था। कवियों में विलियम वर्ड्स जान कीट, पर्सी बिशी, शैली तथा राबर्ट ब्राउनिंग की रचनाओं के पराग-सौरभ ने उनके अन्तर्मन के तारों को स्पर्श किया था। कंगाल तो है नहीं। एक समय था, जब प्रसिद्ध अंग्रेज उपन्यासकार डिकेन्स के ग्रन्थ उन्हें बेहद पसन्द थे। पर वाद में फ्रान्स के विख्यात उपन्यासकार बिक्टर ह्यू गो की एक पुस्तक का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद भी किया था, पर उसको प्रकाशनार्थ नहीं दिया। विप्लव के पूर्ववर्ती युग के महान् रूसी लेखकों में इवान तुर्गनेव की कृतियों का उन्होंने उल्लास के साथ अध्ययन किया था। 1925 में उन्होंने तुर्गनेवकृत ‘स्पोर्टसमेन्स स्केचेज’ का हिन्दी भाषानतर भी प्रस्तुत किया था। पर उसकी पांडुलिपि कहाँ पड़ी है इसका पता नहीं! काउन्टिलियों, ताल्सताय, दोस्तोवस्की और मैक्सिम गोर्की उन्हें इसीलिये पसन्द नहीं थे कि वे विश्वविख्यात प्रतिभाशाली कलाकार थे, वरन इसलिये कि उनकी साहित्यिक कृतियों में सोवियत रूस के ग्रामीण जीवन का मार्मिक चित्रण मिलता है, जो उन्हें भारत के सरल गाम्य जीवन की अनेक अंशो में याद दिलाता था।

प्रसिद्ध अंग्रेज नाट्यकार जार्ज बनार्ड के प्रति भी उनके हृदय में श्रद्धाभक्ति थी। पर तुलनात्मक दृष्टि से वह विलियम शेक्सपियर और जार्ज बर्नार्डशा की अपेक्षा गुरूदेव श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर को बहुत ऊँचा मानते थे। यह उनकी कोरी भावना नहीं थी। विवेक-सन्तुलित समीक्षा के द्वारा वह अपने इस कथन का प्रतिपादन भी करते थे। पढ़ने का उन्हें व्यसन-सा था, और इस दृष्टि से शर्मा जी ने अनेक विदेशी साहित्य सेवियों की उल्लेखनीय कृतियों का अध्ययन किया था। प्रसिद्ध आस्ट्रियन लेखक स्टीफनज्विंग से साक्षात्कार करने की उनकी प्रबल इच्छा थी जिन्होंने 1942 में अपने जीवन से निराश होकर हत्या कर ली थी। अमरीका की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती पर्ल एस0 बक कुछ समय तक उनके गाँव में ठहरीं थी, और उनके साथ उनका विशेष परिचय तो था ही।

रेखाचित्र-कला की दृष्टि से शर्मा जी एक सफल रेखा चित्रकार की तुलना पाकशास्त्र में प्रवीण उस गृहिणी से करते थे, जो उपलब्ध सामग्री से उत्तम पकवान तैयार कर लेती है। एक कैमरामैन उत्कृष्ट चित्र खींचने के लिए केन्द्र, अन्तर और कोण का विशेष ध्यान रखता है, और एक कुशल चित्रकार अपनी तालिका से चित्र में आवश्यक रंग भरता है। आवश्यकता से अधिक या कम रंग भरने से चित्र का सौन्दर्य विनष्ट हो सकता है। शर्मा जी ने भेंट वार्ता में मुझसे कहा था कि रेखाचित्रों में ‘क्य’ अंकित करना चाहिये’ की अपेक्षा ‘क्या नहीं अंकित करना चाहिए’ अधिक आवश्यक है। उनके दृष्टिकोण को समझने के लिए राबर्ट लुई स्टीवेन्सन के इस कथन की सच्चाई पर विचार करना तर्क संगत होता-‘केवल एक ही कला है-शब्दों को छोड़ना। यदि मैं जानता कि कैसे शब्दों को छोड़ा जाता है, तो कोई दूसरा ज्ञान न चाहता।’ जिन-जिन विशेषताओं से रेखाचित्रों की रंग योजना में सजीवता का प्रकाश दृष्टिगोचर होता है, निस्सन्देह उनमें एक विशेषता यह भी है। रेखाचित्र एक प्रकार से किसी व्यक्ति का एक सूक्ष्म छाया-चित्र अथवा गागर में सागर भरने की कला है, जिसमें उस रेखाचित्र के पात्र का सम्पूर्ण अन्तरंग मन की आँखों के सामने चमक उठता है। इन सबके अतिरिक्त चरित्र-चित्रण के भाव रेखा और वर्ण में अतिरिंजना या अपूर्णता तो नहीं है, रेखाचित्र कार को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये। शर्मा जी की सम्म्मति में उच्च कोटि के रेखाचित्रों में संवेदनशीलता, बेधकता, कल्पना, विश्लेषण शक्ति और सहृदयता का होना अत्यन्त आवश्यक है। अंग्रेजी साहित्य में अनेक दिग्गज लेखक हैं, पर उनमें इने गिने ही उच्च कोटि के रेखाचित्रकार हैं।

रेखाचित्र अंकित करने का शर्मा जी का अपना ढंग यह था कि पहले वह जिस व्यक्ति का रेखाचित्र अंकित करते थे, उसके सम्बन्ध में एक मानसिक भूमि तैयार कर लेते थे। फिर गुणों या दोषों को ध्यान में रख कर अपने मस्तिष्क में वर्ण विषय से सम्बन्धित विचारों का समन्वय करते थे। उनका प्रयास हमेशा यह रहता था कि एक विशेष प्रकार से-नवीन दृष्टि से-रेखा चित्रण किया जाय। उदाहरण के लिए अमर रेखाचित्रकार ए0जी0 गार्डनर द्वारा अंकित जार्ज बनार्डिशा के दो रेखाचित्र ऐसे हैं जिनमें उन्होंने अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है जार्ज बनर्डि शा से सम्बन्धित एक रेखाचित्र में उल्लिखित ए0जी0 गार्डनर द्वारा अंकित जार्ज बनर्डिशा के दो रेखाचित्र ऐसे हैं जिनमें उन्होंने अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है जार्ज बनर्डिशा से सम्बन्धित एक रेखाचित्र में उल्लिखित ए0जी गार्डनर की लेखनी से प्रसूत उनके मर्मस्पर्शी रेखाचित्रों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए। उनकी सम्मति में केवल मनुष्यों का ही नहीं बल्कि झील सरोवरों, झरनों, कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, लता-वनस्पतियों तथा निष्प्राण पाषाणों का भी रेखाचित्र अंकित किया जा कता है।

यह पूछने पर कि रेखाचित्र अंकित करने का आप का ढंग क्या है ‘शर्मा जी ने उत्तर दिया था-’ मैं एकान्त वातावरण में चुपचाप पड़े-पड़े और विशेष रूप से प्रातः या सायंकाल पैदल भ्रमण करने के समय रेखाचित्रों के बारे में सोचता हूँ। यह मेरा अपना खास ढंग है। औरो के ढंग इससे भिन्न हो सकते हैं। मुझे कभी-कभी एक रेखाचित्र के लिखने में छः छः और सात-सात दिन लग जाते हैं। मेरे जिन रेखाचित्रों की प्रशंसा होती रही है, पाठकों को क्या मालूम कि उन्हें लिखने में मुझे कितने समय व्यतीत करने पड़े। उदाहरण के लिए एक शिकार सम्बन्धी लेख ‘नयना सितमगर’ विशाल भारत में छपा था। उसके विषय में मेरे पास अनेक पत्र आये थे, और उसके शीर्षक की बड़ी प्रशंसा हुई थी। बात यों हुई कि मैंने एक विशालकाय घड़ियाल को रामगंगा तट स्थित दिउसीपुर ग्राम के निकट मारा था। घड़ियाल अपने शिकार की खोज में घाट के बिल्कुल करीब पानी में पड़ा था। उसके खूनी नेत्र और सिर ही स्पष्ट दीख पड़ते थे। घड़ियाल को मारने के बाद मैंने ‘विशाल भारत’ के लिए लेख लिखा पर उसके लिये मुझे कोई उपयुक्त शीर्षक का चुनाव न कर सका था। इतने ही में होली के उत्सव पर राजा साहब कटियारी के यहाँ मुजरा हुआ। नौकरी के सिलसिले में वहाँ मेरी उपस्थिति आवश्यक थी। गायिका ने अपनी सुरीली आवाज में ठुमरी तर्ज के श्रृति-मधुर बोल निकाले-‘रस के भरे तोरे नयन’ पर नयन शब्द से मुझे घड़ियाल के खूनी नेत्र याद आ गये। सोचा कि कोइ इसी प्रकार का शीर्षक देना तर्क-संगत होगा। मैं इसी उधेड़बुन में डूबा बैठा था कि थोड़ी देर बाद गायिका के कंठ से एक नवीन गान के शब्द मुखरित हुए। तबला और सितार-तबले की ठनकती ध्वनि और सितार के मधुर-तीव्र सुर-दर-दर दा के साथ–तेरे नयना सितमगर जादू भरे’ बोल मुखरित हुए। मेरी समाधि भंग-सी हुई। मैं एकदम उठकर अपने स्थान पर गया, और उस लेख का शीर्षक लिख दिया-‘नयना सितमगर’इस प्रकार रेखाचित्रों में उपयुक्त स्थलों पर शब्दों को जोड़ने में मुझे पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता है। एक दो परिच्छेद लिख लेने के उपरान्त एकदम पूर्ण प्रवाह सा उमड़ पड़ता है। मेरे इस कथन में न तो कोई अतिशयोक्ति है और न किसी रूप में दूसरों पर रौब गाँठने की प्रवृत्ति। यह मेरी कमजोरी हो सकती है अथवा लिखने की एक विशेष कला।’

वर्तमान हिन्दी साहित्य की गति विधि को ध्यान में रखकर शर्मा जी ने भेंट वार्ता में कहा था कि यदि नवीन हिन्दी-कवियों और लेखकों को उचित परामर्श भी दिया जाय, तो वे किसी की बातें मानने को तैयार नहीं। इस समय हिन्दी में जो भावहीन तुकबन्दियाँ प्रकाशित हो रही हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि अधिकांश हिन्दी लेखक और कवि अनुभव साहित्य सेवियों से परामर्श लेना भी अपना अपमान समझते हैं। उर्दू-साहित्य में परम्परा रही है कि जब तक किसी शिष्य को अपने उस्ताद से आज्ञा नहीं मिल जाती तब तक वह अपनी कविता को मशाहरों में जाकर नहीं पढ़ता और कविता पढ़ते की आज्ञा मिलने पर भी शिष्य अपनी रचना को आवश्यक संशोधन के लिये उस्ताद के सामने पेश करता है। इसीलिए नवीन उर्दू-कवियों की रचनायें चमत्कार पूर्ण हो सौन्दर्य के साँचे में ढल जाती है ।दयाशंकर नसीम की प्रसिद्ध मसनवी -गुलजार नसीम’ मूल रूप में विशद और विस्तृत थी। पर नसीम के उस्ताद ने उसमें आवश्यक काट-छाँट कर उसको इतना संक्षिप्त बना दिया कि वह अपने वर्तमान परिष्कृत रूप में काटे में तुल गई है, और वह उर्दू साहित्य की शोभा बढ़ाने वाली एक सर्वाग-पूर्ण मसनवी है। वर्तमान पीढ़ी के नवीन लेखकों और कवियों की कोई रचना पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो अथवा नहीं, इसकी उन्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिये। उन्हें नवीन उमंग धैर्य तथा तन्मयता से अपने आपको व्यक्त करने का अभ्यास करना चाहिये। सत्संग, परिश्रम, साधना और आत्म-नियंत्रण करने से वे निश्चय ही एक-न-एक दिन उच्च कोटि के कलाकार बन जायेंगे। दस पन्द्रह वर्षो की अनवरत् साधना से भी यदि उन्हें उद््देश्य की पूर्ति में सफलता मिल जाये, तो कोई हर्ज नहीं। जिस लेखक की शैली जिसे पसन्द हो, उस लेखक के द्वारा प्रयुक्त शब्दों तथा मुहावरों को ध्यान में रखकर विषय और शैली की दृष्टि से उसको उसकी कृतियों का अध्ययन करना चाहिये। लिखने के लिए अपरिमित विषय-सामग्री चारों ओर बिखरी पड़ी है। पर उससे परिचित होने के लिये मानसिक ग्रहण शीलता चाहिये और ग्रास बुद्धि का विकास अध्ययन तथा नियमित अभयास से ही सम्भव है। आकाश में प्राण पूरक संवादों और नवीन विचारधाराओं की तरंगे निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं। रेडियों में यदि विद्युत और बल्ब ठीक लगे हैं तो वह उन अमूर्त तरंगों को ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार यदि किसी लेखक का मानसिक रेडियों व्यवस्थित है, तो पृथ्वी और आकाश के बीच तरंगित होने वाली नूतन भावनायें और अनूठी उपमायें उसकी मनोभूमि में अवतीर्ण हो सकती है।

मैंने देखा कि टूंडला जंक्शन से 4 मील दूर डेढ़ सौ एकड़ के विस्तार में शर्मा जी का ‘नवजीवन’ नामक कृषि-क्षेत्र था। वहाँ की भूमि जगह-जगह बबूल, नीम, आम, अशोक, अर्जुन सागौन, शिरीष और कदम्ब के हरे और चिकने पत्तों वाले वृक्षों से सुशोभित थी। नीबू आँवला मिसेज बक और मिसेज बट के झाड़ों और रमणीय कुंजों से वह मनोहर प्रतीत होती थी। केले, पपीते, शहतूत, सेजना, शीशम और अमलतास के वृक्ष सरसराती हुई हवा से कम्पित होकर वहाँ की शोभा का विस्तार करते थे। खेतों में ज्वार के पौधे लहलहा रहे थे। झाड़ियों में मयूर, मयूरिणियों के बीच में पंख खड़े कर नाचते दिखलाई पड़ते थे। सतमैये वृक्षों की एक डाल से दूसरी डाल पर मधुर शब्द करते रहते थे। कंघीनुमा चोटियों से विभूषित जंगली मुर्गे भोजन की तलाश में इधर-उधर घूमते थे, और सुनहले तथा पीले रंग के नर-बबूने वृक्षों की पत्तियों पर घूम-घूम कर मीठे स्वर में बोल रहे थे। प्रकृति की अन्तर्वीणा की स्वर झंकृति को सुनते हुए साहित्य-सृजन करने वाले आज शर्मा जी के समान हिन्दी संसार में कितने हैं उनके समान यजुर्वेद के उपहरेद् गिरीणां संगमे च नदीनाम् के चिर स्मरणीय सन्देश को हिन्दी के कितने लेखकों ने अपने व्यावहारिक जीवन में चरितार्थ किया है। मैदानों, वन-खण्डों, पवर्ततों और नदियों के अन्तर्वेदियों के सौन्दर्य के प्रति शर्मा जी में हार्दिक अनुराग की भावना किस प्रकार भरी थी, इसके प्रमाण में ‘शिकार’ नामक पुस्तक में उल्लिखित उनके निम्नलिखित शब्दों को ही उद्घ्रृत कर देना समीचीन होगा………..
‘प्राकृतिक छटा के निरीक्षण में मुझे वहीं मजा आता है, जो मोर को घन-गर्जन में, बतख को तैरने में और शिकारी को शिकार का पीछा करने में।’

‘मोटर की बैटरी जब समाप्त हो जाती है, तब बिजली घर में उसकी चार्ज करते हैं। चाकू जब भोथरा हो जाता है, तब उसे पत्थर पर पैनाते हैं। मेरा जब मस्तिष्क ओर शरीर थक जाता है, और जब चिन्ता और कष्ट रूपी ग्राह समूचा निगल जाने पर उतारू दीख पड़ता है, तब मुझे मानसिक और शारीरिक बैटरी को चार्ज करने के लिए प्राकृतिक डायनेमी……वनों और पर्वतों की शरण लेनी पड़ती है।’

कृषि शर्मा जी की जीविका की आधार-शिला थी। उनका हृदय राष्ट्र-भूमि की गन्ध से सुरभित था, वन-वृक्षों, और जीव-जन्तुओं पृथ्वी के इन वरद पुत्रों के साथ उन्होंने अन्तरंज सान्निध्य अंगरेज लेखक ब्रल्सफार्ड उनके कृषि विषयक व्यावहारिक अनुभव के बारे में लिखा था……….कालेज की शिक्षा पूरी कर लेने के उपरान्त पण्डित श्रीराम शर्मा ने भारतीय ग्रामों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। सच्चा भारत ग्रामों में ही बसता है, और मेरा विश्वास है कि उनका बुद्धि वैभव राजनीतिक और अर्थ शास्त्रीय दृष्टि से समाज और राष्ट्रीय आत्मा के मेरूदंड भारतीय किसानों की सेवा करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होगा। उनकी बौद्धिक क्षमता अपूर्व है, और वह समस्याओं के मूल में गहराई तक प्रवेश कर उनका समीचीन समाधान प्रस्तुत करते हैं। मैं उनके गम्भीर निर्णय और पक्षपात रहित दृष्टिकोण से आश्चर्य चकित हुआ हूँ।

कृषि और साहित्य के समन्वय की चर्चा करते हुए शर्मा जी ने मुझसे कहा था कि प्राचीन काल में गीता के प्रवक्ता श्री कृष्ण ने वृन्दावन की गोचर भूमियों में गौयें चराई थीं। उनके अग्रज बलराम ने हल चलाये थे और उन्होंने भारत वासियों को आर्य संस्कृति का अमर सन्देश सुनाया था। कृषि की उन्नति के लिये विदेहराज जनक ने भी हल चलाये थे और तब आम्र कानना मिथिला में सीता का आविर्भाव हुआ था। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब और विश्व बन्धुत्व के सन्देशवाहक प्रभू ईसा मसीह बकरियाँ और भेड़ें चराया करते थे। ब्राह्मण -ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों जैसी दार्शनिक कृतियों का निर्माण वन्य आश्रमों, जंगलों और पर्वतों के अंचलों में ही हुआ था, न कि लखनऊ आगरा और कलकत्ता जैसे नगरों की गन्दी गलियों में। भगवान बुद्ध ने भी वन्य प्रदेशों में ही अपने मर्मोद्गारों को व्यक्त किया था। महाकवि कालिदास ने निरन्तर प्रकृति के निकटतम सम्पर्क में रहने के कारण ही अपनी कृतियों में नूनतम उपमाओं का प्रयोग करने में सफलता प्राप्त की थी। अगर कबीर जुलाहे का कार्य न करते होते, तो उनकी चिरस्मरणीय कविता झीनी-झीनी बीनी चदरियाँ’ आज पढ़ने को नहीं मिलती। कविवर अब्दुररहीम खानखाना उच्च कोटि के प्रशासक और सेनापति थे। आपत्ति-काल में उन्होंने भाड़ भी झोंके थे। पर इससे उनके साहित्यिक कार्यो में विघ्न नहीं उपस्थित हुआ था। वर्तमान युग में श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने वृक्षों के पत्तों से प्रेरणा ग्रहण कर नये-नये छन्दों का निर्माण किया था। अमरीका की सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती पर्ल0एस0 बक न्यूयार्क के निकट कृषि कार्यो से सम्बन्ध स्थापित कर साहित्य सृजन की दिषा में अग्रसर हुई थी। कृषि-कार्यो ने उनकी साहित्य सेवा के मार्ग में प्रतिबन्ध नहीं उपस्थित किया। स्वर्गीय लुई ब्राम फील्ड अत्यन्त सफल किसानों में थे। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने साहित्य सेवा में संलग्न रहने के बावजूद कृषि से सम्बन्ध विच्छेद नहीं किया था।

शर्मा जी ने आगे कहा था…….‘वस्तुतः कृषि और साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, और यह एक मानी बात है कि जीवन की सर्वप्रथम आवश्यकता अन्न है। ‘अन्न वै प्राणः।’ इंग्लैंड, अमरीका और जर्मनी जैसे देशों में ऐसे अनेक सफल साहित्यकार है जिनका व्यवसाय कृषि रहा है। यदि कोई साहित्यकार है तो उसकी किसी भी वृत्ति से उनके साहित्यिक कार्यो में विघ्न नही उपस्थित हो सकता। क्या प्रत्येक पढ़ा लिखा शहरी साहित्यिक है प्रकृति के स्वास्थ्यप्रद सम्पर्क से दूर रहने के कारण शारीरिक और मानसिक शक्तियों के विकास की दृष्टि से शहरी व्यक्ति शीघ्र ढीले और दुर्बल हो जाते हैं। पृथ्वी माता के प्रति अन्तिम आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त शर्मा जी ने निम्नलिखित शब्दों से हमें उनके व्यक्तित्व के निर्मल पक्ष की एक झलक मिल सकती है…….मेरे निर्जीव शरीर को फार्म के किसी स्थान पर ल जाया जाय और मेरी हड्डियों को या तो किसी फूलदार वृक्ष की जड़ में अथवा फसलदार खेत में गाड़ दिया जाये जिससे धरती माता को पोषण तत्व के रूप में पोटाश और फास्फेट की कुछ उपयोगी खाद मिल जाय।’

एक भेंट वार्ता में शर्मा जी ने मुझसे कहा था कि व्यक्तित्व और कवित्व के समन्वय बिना कोई महान कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। भारत जैसे गणतंत्रात्मक राष्ट्र में इस बात का मुख्यतः अभाव है। यहाँ तो भीषण भाषणों की धूम मची है। जो कोरे बातूनी हैं, और जिनका ज्ञान सत्य, किन्तु आचरण असत्य है, वे दार्शनिक दृष्टि से व्यभिचारी हैं। किसी इन्द्रिय -विशेष का दुरूपयोग ही व्यभिचार नहीं है, जो आवश्यकता से अधिक बकता है, और आवश्यकता से अधिक खाता है वह वाणी और जीभ दोनों का व्यभिचार करता है। दूसरों को उपदेश देना और स्वयं उसके अनुसार आचरण न करना चोरी और व्यभिचार है। श्रोताओं पर उपदेश कुशल वक्ताओं के भाषणों का और पाठको पर कलाकारों की कृतियों में उल्लिखित विचारों का प्रभाव इसलिये नहीं पड़ता कि वे स्वयं तो अपने विश्वसों के अनुसार आचरण करते नहीं, और दूसरों को उन पर आचरण करने का उपदेश देते हैं। इसी प्रसंग में शर्मा जी ने आगे कहा था…..‘महात्मा गाँधी के संदेशों का प्रभाव दूसरों पर क्यों पड़ता था इसलिए कि उनकी कथनी और करनी में अन्तर नहीं था, और वह कोरे सिद्धान्तवादी नहीं थे। पंडित श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू रामानन्द चट्टोपाध्याय के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। गाँवों में अनेक व्यक्ति अपने विश्वासों के अनुसार स्वयं आचरण भी करते हैं। उनका क्षेत्र परिमित है, पर वे सम्मान और श्रद्धा के पात्र है। पैगम्बर मुहम्मद साहब निरक्षर थे। पर उनकी कृति उनके व्यक्तित्त्व से प्रभावित थी। आज जनतन्त्र की दुहाई दी जा रही है, और जनतंत्र जनमत के केन्द्र बिन्दु पर आधारित है। प्रस्तुत प्रसंग में शर्मा जी ने सर मुहम्मद इकबाल की निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख किया था……….

‘जमहूरियत वो तर्जे
हुकूमत है कि जिसमें
बन्दों को गिना करते हैं
तोला नहीं करते।’

यदि त्रेता में राम जनमत का विचार करते, तो वह राज्य से उदासीन होकर विरक्त तपस्वियों के वेष में वन को कभी नहीं जाते। उनके वन-गमन के पक्ष में केवल मन्थरा और कैकयी के दो मत थे। दशरथ तटस्थ थे। पर सच्चाई और कर्तव्य पालन की दृष्टि से उन्होंने जनमत अथवा झूॅठी जमहूरियत का विचार नहीं किया था, विरोध के केवल दो मतों को ही मान्यता प्रदान की थी।

आँखेें खराब हो जाने के कारण शर्मा जी की दशा उस यात्री के समान थी, जिसकी ट्रेन स्टेशन पर खड़ी हो, पर जो स्वयं स्टेशन से बहुत दूर हो। मौत से वह डरते नहीं थे। ठोस कार्य करने की ……कृषि करने, फारसी पढ़ने और एक दर्जन मौलिक ग्रन्थ लिखने की उनकी प्रबल आकांक्षा थी। हितोपदेश में स्वाध्याय की प्रशंसा में उल्लिखित ‘अजरामरवत प्राज्ञो विद्यामर्थ च चिन्तयेत’ इस उक्ति ने उनके मन-बुद्धि पर गहरा प्रभाव डाला था। तुजुक जहांगीरी और बाबरनामा को सीधे उनके मूल में ही पढ़ने का विचार उनक मानसिक भाव-जगत को आन्दोलित करता रहता था। भारतीय पक्षियों जंगली जानवरों, कीड़े-मकोड़ों, लता वनस्पतियों पर अन्य ऐसे ही विषयों पर वह मौलिक ग्रन्थ के रूप में एक रोचक अध्ययन प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने 40 वर्ष तक अनुभव तथा सूक्ष्म निरीक्षण के द्वारा इन विषयों का अध्ययन किया था। यह बात जान लेनी चाहिये कि राष्ट्र भाषा हिन्दी में स्थायी महत्त्व के इन विषयों पर आज जो पुस्तकें उपलब्ध है। प्रामाणिक और उपादेय होने के बावजूद अंग्रेजी भाषा से अनुदित है।

नर नाहर शर्मा जी के व्यक्तित्व में प्रकृति की क्रूरताओं को सहन करने में समर्थ एक सफल किसान की सहनशीलता, एक योग्यतम कलाविद् शिकारी की सजीवता, एक कुशल शब्द चित्रकार की संवेदना एक निर्भीक और स्वाभिमानी पत्रकार की निर्भीकता और एक स्वदेश सेवाव्रती क्रान्तिकारी योद्धा की अविचल धीरता का अभूत पूर्व सामंजस्य था। प्रतिकूल परिस्थितियों, कठिनाईयों और विपत्तियों के भयंकर झझावातों में हिम्मत न हार कर दृढ़तार्वूक कदम रखते हएु कर्तव्य पथ पर अग्रसर होना अपने प्राप्तव्य आदर्श कथन और प्रतिपादित सिद्धान्त का अपने प्रत्यक्ष आचरण के साथ संयुक्त करना, लपटों की तरह लपलपाती मौत की विकराल आँखों में आँखें डालकर मुस्कराना और अत्याचार तथा उत्पीड़न के विरूद्ध बलवती प्रेरणा के रूप में अग्नि के समान प्रज्जवलित हो उठना उनका सहज स्वभाव था। भारत माता की पराधीनता की श्रृंखला को तोड़ने की अग्नि-परीक्षाओं में उनके अनवरत् वीरता पूर्ण संघर्ष कठोरतम क्लेश सहन और राष्ट्र-यज्ञ के कल्याणकारी अनुष्ठान में निष्काम भाव में सर्वस्व समर्पण उनकी ज्वलन्त देश भक्ति के सजीव प्रमाण है। शर्मा जी बीच से टूट कर दो टुकड़ों में विभक्त हो किसी के सामने झुक नहीं सकते थे यह उनका सहज गुण या दोष था।

-श्री रामइकबाल सिंह ‘राकेश’