वंश वृक्ष

ब्राह्मणों का एक दल (जिसमें कुछ कश्मीरी ब्राह्मण भी थे) औरंगजेब के विरुद्ध दाराशिकोह की तरफ से लड़ा था। दारा के हार जाने पर उस ब्राह्मणों के दल पर औरंगजेब ने अत्याचार करना आरम्भ कर दिया। यह विशाल दल आगरा के निकट शमशाबाद में आकर छिप गया था। औरंगजेब की सेना ने जब उन पर पुनः आक्रमण किया तो वे लोग यमुना के खादरो की ओर भागे। मार्ग में एक जंगल के निकट मोर्चा ठन गया। गर्भिणी महिलाओं तथा बच्चों और अतिवृद्धो को जंगल में छिपाकर मुगल सेना से युद्ध करते हुए सारे पुरुष मारे गये। छिपे हुये समूह के साथ के कुछ पालतू कुत्ते भौंकने लगे और मुगल सेना को उनका पता लग गया और सेना ने लगभग सबको कत्ल कर दिया। कुछ बच्चे कुछ महिलाएँ तथा आठ दस वृद्ध व्यक्ति पेड़ों पर चढ़कर तथा झाड़ियों में छिपकर अपने को बचा सके। वे लोग अपने को “कनहुआ” कहते थे। सम्भवतः शाकाहारी तथा कृष्ण भक्त होने के कारण कहते होंगे। सारे “कनहुआ” युद्ध व्यवसायी तथा सैनिक थे- और उनमें एक विचित्र परम्परा थी – वे पढ़ने-लिखने के विरोधी थे और इस घटना के बाद उनमें कुत्ते पालने पर भी निषेध हो गया। मुसलमानों के पुनः आक्रमण से पीड़ित होकर सन् 1857 के जन-विद्रोह से लगभग पचास वर्ष पूर्व करकोली ग्राम के निकट यमुना पर करके “कनहुआ” कबीला मेहरा तथा स्वारा ग्रामों को छोड़कर फिरोजाबाद नगर से दस पन्द्रह मील की दूरी पर बसे सड़ामई तथा रनुआखेड़ा ग्रामों में आकर बस गये, और उनके एक छोटे दल ने किरथरा नामक ग्राम बसाकर उसमें रहना आरम्भ कर दिया।

किरथरा वालो में दो सगे भाई थे, जीराज तथा परमसुख। पं. परमसुख कनहुआ, पं. श्रीराम शर्मा के पूर्वज थे, और मेहरा स्वारा ग्रामों से आये लोगो की तीसरी पीढ़ी में थे। पं. परमसुख से पूर्व के लोगों के नाम विदित नहीं हो सके।

पंडित बख्शीराम बहुत धनी व्यक्ति थे चाँदी के रुपये तोल-तौल कर देते थे और बीस बैलों से खेती करवाते थे। इनके पुत्र पं. भोलानाथ का विवाह बड़े गाँव-जसराना (जिला मैनपुरी) के नन्दलाल की बहिन से हुआ था। पं. नन्दलाल के बैभव की प्रसिद्धि थी कि उनके द्वार पर दो हाथी झूमते रहते थे। पं. नन्दलाल की पुत्री का विवाह लखनऊ (अलीगढ़) में हुआ था।

1857 के गदर के आसपास लखुआ-खनसइया डाकू किरधरा गाँव को लूटने आये, ब्राह्मणों ने विरोध किया तो डाकुओं ने समझौता कर लिया, लूटपाट नहीं हुई।

जब पं. भोलानाथ का जवानी में ही देहावसान हो गया तब उस शोक में पं. बख्शीराम ने प्राण त्याग दिये। पं. भोलानाथ के पुत्र रेवतीराम शैशवावस्था में थे। पं. नन्दलाल, पं. भोलानाथ का सारा धन खोद-खोदकर ले गये। बैलगाड़ियों तथा भैंसों (नर) पर लादकर सोना-चाँदी, बर्तन आदि सब बड़े गाँव ले जाया गया तथा पं. नन्दलाल अपनी बहिन तथा भानजे (पं. रेवतीराम) को भी ले गये, जिन्हें उन्होंने पाला-पोसा तथा उर्दू, फारसी तथा संस्कृत की शिक्षा दिलाई। संस्कृत पढ़ने वे आगरा (आज के आगरा काॅलेज) तथा काशी भेजे गये। पं. नन्दलाल के देहान्त के बाद सारी सम्पत्ति वहीं रह गई और उसे लखनऊ वाले ले गये। पं. नन्दलाल का वंश नष्ट हो गया। पं. रेवतीराम किरथरा लौट आये, अपनी पत्नी को लेकर। किरथरा में केवल 145 बीघा खेती रह गई थी। पं. रेवतीराम का देहान्त 35-36 वर्ष की आयु में ही हो गया और फिर उनकी पत्नी ने अपने तीन पुत्रों को बड़े ही संकट की परिस्थिति में पाला। बड़े पुत्र पं. बालाप्रसाद शर्मा ने कुछ दिनों गुरूकुल ज्वालापुर में अध्यापन किया, फिर गाँव में रहकर खेती देखने लगे। मंझले पुत्र पं. श्रीराम शर्मा अपनी कमिश्नरी के प्रथम ग्रेजुएट थे, (आगरा काॅलेज से) और छोटे पुत्र पं. जगन्नाथ रूग्णता के कारण अविवाहित ही स्वर्गवासी हुए। एक विशेष परम्परा कनहुआ ब्राह्मणों की यह रही है कि उनके सम्बन्ध गुर्जरों से बहुत ही घनिष्ठ थे। कनहुआ ब्राह्मणों में पं. रेवतीराम शर्मा प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने रूढ़ि तोड़कर पढ़ना-लिखना सीखा था। इन कनहुआ ब्राह्मणों का गोत्र कश्यप है।

वंश वृक्ष (कुलावलि)